शुक्रवार, 15 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*निर्मल नाम विसार कर, दादू जीव जंजाल ।*
*नहीं तहाँ तैं कर लिया, मनसा मांहीं काल ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

इति विकल्पना—अयं सःअहं अयं न क्षीण?
'यह मैं हूं, यह मैं नहीं हूं—ऐसी सब कल्पनाएं योगी की सदा के लिए क्षीण हो जाती हैं।’
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यह कहना कि यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं भेद खड़ा करना है, जब कि एक ही है, तो किसी को कहना मैं और किसी को कहना तू भेद खड़ा करना है; विकल्पना है, धारणा है। और ध्यान रहे, भय की कल्पना से भूत खड़े हो जाते हैं। खयाल पैदा हो जाये तो बस.....।
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एक सज्जन सदा बात करते कि मैं भूत—प्रेत से बिलकुल नहीं डरता। बार—बार कहते कि मैं भूत—प्रेत से नहीं डरता। कोई कारण भी नहीं होता तब भी कहते हैं कि भूत—प्रेत से नहीं डरता। जरूर डरते होएंगे।
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किसी ने कहा कि मैं भूत—प्रेत जानता हूं एक जगह हैं। अगर सच में हिम्मत हो तो तुम चले चलो। अब वे सदा कहते थे। तो घबड़ाये तो बहुत। उनके चेहरे से तो बहुत घबड़ाहट मालूम पड़ी। लेकिन अब अहंकार का मामला था। उन्होंने कहा, मैं डरता ही नहीं, कहां है ?
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एक गोडाउन, जहां एक कैरोसिन तेल बेचने वाले के टीन के डब्बे इकट्ठे रहते थे। खाली डब्बे गर्मी के दिन में सिकुड़ते और आवाज करते। और डब्बों की कतार लगी है उस घर में। उनसे कहा, बस तुम इसमें रात भर रह जाओ। घबड़ाये तो वे बहुत, क्योंकि उसमें वर्षों से कोई नहीं रहा है। उसमें डब्बे ही भरे रहते हैं वहां। कहने लगे, क्या आपको पक्का है कि यहां भूत—प्रेत हैं?
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कहा, पक्का है ही और खुद अनुभव करोगे कि जब भूत—प्रेत एक डब्बे में से दूसरे में जाने लगेंगे, तब पता चलेगा। घबडाना मत। और अगर कोई बहुत घबड़ाहट की बात हो जाये तो एक घंटा टांग जाते हैं, इसको तुम बजा देना। तो पास—पड़ोस के लोग आ जायेंगे, तुम्हें बचा लेंगे, तुम घबड़ाना मत। उन्होंने कहा, घबड़ाता ही नहीं मैं। फिर घंटा ले जाने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा, घंटा तो रख ही लेना चाहिए।
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'घबड़ाते ही नहीं तो घंटे का क्या करोगे ?' 
'अब वक्त—बेवक्त की कौन जानता है !' मगर उनके हाथ—पैर कांपने लगे। उन्हें छोड़ कर आये कोई आधा ही घंटा नहीं हुआ होगा, शाम ही थी, साढ़े आठ—नौ बजे होंगे, कि उन्होंने जोर से घंटा बजाया। क्योंकि जैसे ही सांझ होती है और तापमान बदलता है तो दिन भर के तपे हुए डब्बे फैल जाते हैं और रात को सिकुड़ते हैं। जैसे ही सिकुड़ने कि आवाज होनी शुरू हुई, अब उनको कल्पना तो पक्की थी और अकेले थे वहां तो उन्होंने खूब कल्पना कर ली होगी अपने को संभालने के लिए, कि कोई कुछ नहीं कर सकता है यह......।
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और जब उन्होंने सुना निकलने लगे भूत, एक डब्बे में से दूसरे में जाने लगे, घंटा बजाया।पता ही था कि घंटा बजेगा ही थोड़ी—बहुत देर में। ज्यादा देर नहीं लग सकती, क्योंकि वे भूत—प्रेत तो निकलेंगे ही। वे छज्जे पर खड़े हैं। उनको कहा गया कि आप अंदर से आ कर दरवाजा खोलें, क्योंकि दरवाजा भीतर से खुद ही बंद किया है; मगर उनकी इतनी हिम्मत नहीं कि वे उस कमरे में से गुजर सकें जहां से भूत—प्रेत निकल रहे हैं। और उनकी घिग्घी भी बंद हो गयी। वे बोल भी न सकें। सीढ़ी लगा कर उनको नीचे उतारना पड़ा।
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उनसे पूछा, बोलते क्यों नहीं? उन्होंने कहा, क्या खाक बोलूं? किसी तरह आधा घंटा बर्दाश्त किया है। अब भूल कर कभी नहीं यह कहूंगा कि.....। भूत—प्रेत नहीं होते हैं। प्रत्यक्ष अनुभव अब मुझे हुआ।
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उन्हें लाख समझाया कि कोई भूत—प्रेत नहीं हैं। चलो तुम्हारे साथ चलते हैं। तुम्हें सब राज समझाये देते हैं। उन्होंने कहा, छोड़ो, अब इस मकान में मैं दुबारा नहीं जा सकता हूं।
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कल्पना आरोपित कर ले सकते हैं—किसी पर भी आरोपित कर ले सकते हैं। और विकल्पना का बड़ा बल है। एक स्त्री को सुंदर मान लेते हैं, बस वह सुंदर हो जाती है। धन में कुछ देखने लगते हैं, दिखाई पड़ने लगता है। पद में कुछ लोलुप हो जाते हैं, वासना वहां जुड़ जाती है, विकल्पना जाल फैलाने लगती है।

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