शुक्रवार, 15 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*जे सांई का ह्वै रहै, सांई तिसका होइ ।*
*दादू दूजी बात सब, भेष न पावै कोइ ॥*
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*‘धन बटोरने की तृष्णा को छोड़ो।’*
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धन से केवल अर्थ उस धन का नहीं है जिसे तुम धन कहते हो; धन से उस सब का अर्थ है जिसको तुम बटोरते हो। जिसको भी बटोरने की तुम्हारे भीतर तृष्णा है, वह सभी धन है–फिर वह ज्ञान ही क्यों न हो। जब तुम ज्ञान भी बटोरते हो, तुम धन ही बटोर रहे हो। एक आदमी रुपये गिनता जाता है, कितने उसकी तिजोरी में हो गए। 
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एक आदमी ज्ञान गिनता जाता है कि कितना ज्ञान उसने बटोर लिया, कितनी सूचनाएं उसके पास हो गईं, कितने शास्त्र उसने पढ़ लिए। पर दोनों बटोर रहे हैं। तीसरा आदमी हो सकता है त्याग बटोर रहा हो–कि कितने उपवास उसने किए। चौथा आदमी हो सकता है यश बटोर रहा हो–कि कितने लोग उसे मानते हैं, कितने लोग उसे पूजते हैं, कितने लोग उसके पीछे चलते हैं। 
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जहां भी तुम बटोरते हो, जो भी बटोरा जाता है, वह सब धन है। और धन बड़े धोखे का है; क्योंकि भीतर तो तुम निर्धन ही बने रहते हो, और बाहर तुम बटोरते चले जाते हो। जो बाहर इकट्ठा किया है, वह भीतर न ले जाया जा सकेगा। और जिसे तुम अपने भीतर न ले जा सके, मौत उसे छीन लेगी; क्योंकि तुम ही मौत से पार जा सकोगे, और कुछ भी नहीं। केवल तुम्हारा होना ही गुजरेगा, लपटें उसे जला न सकेंगी, शस्त्र उसे बेध न सकेंगे–नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। सिर्फ तुम गुजर पाओगे मौत के द्वार से–शुद्ध तुम, और कुछ भी नहीं।
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अगर तुमने बाहर का ही धन बटोरा, तो तुम निर्धन गुजरोगे मौत के द्वार से। और जब मौत तुम्हें निर्धन बता देगी, तो जीवन में भी धन का सिर्फ धोखा ही हुआ। वह धन क्या जिसे हम साथ न ले जा सकें? संपत्ति वही है जो साथ जा सके, अन्यथा शेष सब विपत्ति है। जिसे तुम बटोरते हो, वह संपत्ति लगती है, संपत्ति है नहीं; है तो विपत्ति। और तुम भी जानते हो। बटोर लेने के बाद पता चलता है कि और विपत्ति बढ़ गई। 
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संपत्ति से तो संतोष आता, संपत्ति से तो शांति आती, संपत्ति से तो निर्भयता आती, संपत्ति से तो तुम्हारे जीवन में एक स्वर गूंजता–कि पा लिया, पहुंच गए, घर आ गया; एक विश्राम की सुगंध तुम्हारे जीवन में उठती। लेकिन वह तो उठती दिखाई नहीं पड़ती। संपत्ति बढ़ती है, वैसे तुम्हारे जीवन में और भी दुर्गंध उठती है, और भी तुम्हारे जीवन में भय उठता है। संपत्ति क्या इकट्ठी होती है, हजार चिंताएं इकट्ठी होती हैं। संपत्ति से शांति तो नहीं मिलती, अशांति के द्वार खुल जाते हैं।

‘हे मूढ़, धन बटोरने की तृष्णा को छोड़ो।’
बटोरने की ही तृष्णा को छोड़ो। बटोरने का इतना पागलपन क्यों है?

🌼 *भजगोविंदम मूढ़मते* 🌼
🙏🏻🌹 *ओशो प्रेम.....* ✍🏻

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