रविवार, 3 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*सपने सब कुछ देखिये, जागे तो कुछ नांहि ।*
*ऐसा यहु संसार है, समझ देखि मन माँहि ॥*
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साभार ~ satsangosho.blogspot.com

इधर तो कहते हैं, उसकी बिना मर्जी के पत्ता नहीं हिलता—और फिर भी संचित कर्म करते हैं ! पुण्य—पाप करते हैं, उसकी मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिलता ! फिर तुम कौन हो? बीच में क्यों आ गये हो? कह दो. 'जो हुआ उसके द्वारा हुआ। जो नहीं हुआ उसके द्वारा हुआ, अगर किसी को मारा तो उसने ही किया होगा। और अगर किसी ने मुझे मारा तो उसकी मर्जी रही होगी। न अब कोई नाराजगी है, न कोई लेन—देन है। दिया—लिया सब बराबर हो गया।' ऐसी अनुभूति का नाम मुक्ति है।

मुक्ति में संचित का कोई हिसाब नहीं है। संचित में तो पुरानी धारणा फिर खींच रहे हैं। कर्म किया, तो उसका तो कुछ करना पड़ेगा न ! पाप किये तो पुण्य करने पड़ेंगे। पुण्य से पाप को संतुलित करना पड़ेगा, तब कहीं मुक्ति होगी।
बड़े हिसाबी—किताबी दूकानदार हैं। परमात्मा समझ में नहीं आता। परमात्मा जुआरी है, दूकानदार नहीं। परमात्मा खिलाड़ी है, दूकानदार नहीं। यह बात ही समझ में नहीं आती कि यह तो बेबूझ है। यह मान ही नहीं सकते कि पुण्यात्मा भी वैसा ही है जैसा पापी।
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दोनों ने सपना देखा। कहते हैं, 'पुण्यात्मा ने भी सपना देखा, पापी ने भी। दोनों में कुछ फर्क तो होगा !' कुछ फर्क नहीं है। रात साधु बन गये सपने में कि चोर बन गये, क्या फर्क है ! सुबह उठ कर क्या कुछ फर्क रह जायेगा? सुबह उठ कर दोनों सपने सपने हो गये—अच्छा भी, बुरा भी।
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शुभ और अशुभ के जो पार हो गया, वही मुक्त है। पाप और पुण्य के जो पार हो गया, वही मुक्त है। और पार होने के लिए क्या करेंगे? क्योंकि करने से बंधे हैं। इसलिए पार होने के लिए एक ही उपाय है कि करें न, करने को देखें ! जो हो रहा है होने दें। निमित्त हैं जरूर। सपना बहा जरूर।
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'तो फिर संचित का क्या भविष्य बनता है?'
न संचित कभी था। अतीत भी नहीं है, भविष्य तो क्या खाक होगा ! संचित का न कोई अतीत है, न कोई वर्तमान है, न कोई भविष्य है। सपने का कोई अतीत होता है? कोई भविष्य होता है? कोई वर्तमान होता है? सपना होता मालूम पड़ता है, होता नहीं—सिर्फ भास मात्र, आभास भर।
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'क्या वह क्षीण हो जाता है?'
अपनी भाषा दोहराये चले जा रहे हैं। सुबह जब जागते हैं तो सपना क्षीण होता है? समाप्त होता है। क्षीण का तो मतलब यह है कि अभी थोड़ा— थोड़ा जा रहा है। जाग भी गये, सपना दस इंच चला गया, फिर बीस इंच गया, फिर गज भर गया, फिर दो गज, फिर मील भर, ऐसा धीरे — धीरे...... जागे बैठे अपनी चाय पी रहे और सपना जो है वह रत्ती—रत्ती जा रहा है, क्षीण हो रहा है। कोई धक्का दे दे सोते में, एकदम से आंख खुल जाये, तो भी सपना गया— पूरा—का—पूरा गया। सपना बच कैसे सकता है?

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