बुधवार, 20 मार्च 2019

= *पतिव्रता का अंग ६६(४५/४८)* =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*पतिव्रता निज पीव को, सेवै दिन अरु रात ।* 
*दादू पति को छाड़ कर, काहू संग न जात ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
**पतिव्रता का अंग ६६** 
गहि पतिव्रत पाषाण का, आगि रह्या उर लाय ।
रज्जब युग जल में भये, पाणी मिल्या न जाय ॥४५॥
अग्नि पत्थर का पतिव्रत ग्रहण करके उसमें रहता है, पत्थर को जल में रहते हुये युग व्यतीत हो गये किन्तु अग्नि जल से नहीं मिला पत्थर में ही रहा, वैसे ही संत राम का पतिव्रत ग्रहण करके संसार में रहते हैं । किन्तु संसार में नहीं मिलते निरंतर हृदय में राम का ही चिन्तन करते रहते हैं ।
छाया रूपी व्रत गही, रही तु चेतन लागि ।
रज्जब दुख सुख संग सो, कदे न जाई भागि ॥४६॥
छाया के समान पतिव्रत ग्रहण करना चाहिये, जैसे छाया दुख सुख में सदा साथ रहती है, कभी भी छाया वाले को त्यागती, वैसे ही चेतन परमात्मा का चिन्तन सुख दुख आदि सभी समय में करना चाहिये, चिन्तन द्वारा प्रभु के संग रहना चाहिये, कभी भी चिन्तन छोड़कर वृति विषयों में नहीं भागनी चाहिये ।
ज्यों जल मीन भुजंग मणि, दोऊ पतिव्रत माँहिं ।
मीन मुदित औरे जलै, सर्प और मणि नाँहिं ॥४७॥
मच्छी और सर्प दोनों जल और मणि का पतिव्रत रखते हैं, मच्छी तो घट - जल में डालकर दूसरे तालाब में डालने से भी प्रसन्न रहती है किन्तु सर्प दूसरी मणि से प्रसन्न नहीं होता, सर्प के समान ही संत निर्गुण राम से पतिव्रत रखते हैं ।
रज्जब ताकहु१ तोर२ ही, पहुप प्रीति पर जोय३ ।
शशि सज्जन संग जीवते, सूर समय शिर खोय ॥४८॥
जो१ पुष्प की प्रीति है उस पर अपने नेत्रों२ से देखो३, चन्द्रमुखी कमल के पुष्प अपने सज्जन चन्द्रमा के साथ तो जीवित रहते हैं अर्थात खिले रहते हैं और सूर्य उदय होने पर उनके सिरे की शोभा नष्ट हो जाती है, वैसे ही संतों का चित्त निर्गुण राम के चिन्तन से तो प्रसन्न रहता है और सांसारिक चिन्तन से विक्षिप्त होता है । 
(क्रमशः)

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