रविवार, 31 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*पूजा मान बड़ाइयां, आदर मांगै मन ।*
*राम गहै, सब परिहरै, सोई साधु जन ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ मन का अंग)* 
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साभार ~ Soni Manoj
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🌲भिक्षु🌲
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भिक्षु का अर्थ है : जिसकी कोई आकांक्षा नहीं । इतना ही नहीं कि उसने वासनाएं छोड़ीं, इंद्रियां छोड़ी, उसने इंद्रियों पर जो मालकियत करने वाला भीतर का अहंकार है, वह भी छोड़ दिया । उसने बाहर का स्वामित्व भी छोड़ दिया; उसने स्वामी को भी छोड़ दिया । वह जो भीतर स्वामी बन सकता है, उसको भी छोड़ दिया ।
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बुद्ध कहते हैं : तुम भीतर एक शून्यमात्र हो । और जब तुम शून्यमात्र हो, तभी तुम वस्तुतः हो । यह भिक्षु की दशा । बुद्ध ने कहा : 'जिसकी नाम-रूप - पंच - स्कंध - में जरा भी ममता नहीं है और जो उनके नहीं होने पर शोक नहीं करता, वह भिक्षु कहा जाता है ।' बड़ी सीधी परिभाषा, गणित की तरह साफ : 'जिसकी नाम-रूप में जरा भी ममता नहीं है .... ।'
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नाम-रूप का अर्थ होता है, मानसिक और शारीरिक । मनुष्य दो अवस्थाओं का पुंज है - मन और शरीर । सूक्ष्म पुंज मन; उसका नाम है - नाम । क्योंकि तुम्हारे सूक्ष्म पुंज मन का जो सबसे गहरा भाव है, वह है अहंकार - मैं । और जो स्थूल पुंज है शरीर, उसका नाम है - रूप । आदमी दो में डोलता रहता है - नाम-रूप ।
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जिनको हम बड़े-बडे़ आदमी कहते हैं, वे भी इस अर्थ में छोटे ही छोटे होते हैं । जिनको सामान्य जनता बड़े नेता कहती है, महात्मा कहती है, वे भी साधारणत: इन्हीं दो में बंधे होते हैं । और इन दो से जो मुक्त हो जाए, वही भिक्षु ।
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इस दुनिया में सारी खोज पद की है, यश की है, नाम की है । किसी को और किसी बात से मतलब नहीं है । सबको एक बात से मतलब है कि मैं किसी तरह सिद्ध करके दिखा दूं कि मैं महान हूं । और जो भी व्यक्ति सिद्ध करके दिखाना चाहता है कि महान है, उसके भीतर हीनता की ग्रंथि है; इनफीरियारिटी कांप्लेक्स है; और कुछ भी नहीं ।
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बुद्ध ने कहा : जिसके भीतर से नाम-रूप की ममता चली जाए; जिसे न तो यश की आकांक्षा हो, न पद की आकांक्षा हो । जिसके भीतर सूक्ष्म-स्थूल दोनों में से किसी के प्रति कोई लगाव न रह जाए । ऐसा जो ममता से मुक्त है, वही भिक्षु है ।

'और पद-प्रतिष्ठा, नाम-रूप, सबके खो जाने पर जो शोक न करे ..... । इसलिए बुद्ध कहते हैं : पहले तो ममता न हो । और इसका प्रमाण क्या होगा ? जब ये चीजे़ं छूट जाएं , तो शोक न हो । तभी असली बात पता चलेगी । दुख न हो । ममता नहीं थी तो दुख हो ही नहीं सकता । ममता थी, तो ही दुख हो सकता है । '....वही भिक्षु कहा जाता है ।'
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ममता शब्द प्यारा है; अर्थपूर्ण है । इसका मतलब होता है मैं - भाव । मम+ता, मम यानी मैं, चीजों में बहुत मैं - भाव रखना । यह मेरा मकान । यह मेरी पत्नी । यह मेरा धर्म । यह मेरी किताब । यह मेरा मंदिर । यह सब ममता है । जब मैं - भाव चला जाए .... । मकान मकान है, मेरा क्या । और देश देश है, मेरा क्या ! शास्त्र शास्त्र है, मेरा क्या ! पत्नी स्त्री है, मेरा क्या ! मेरा कुछ भी नहीं है ।
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जब सब मेरे गिर जाते हैं, तो अचानक तुम पाओगे : एक चीज अपने आप गिर जाती है, वह है मैं । मैं को सम्हालने के लिए मेरों के डंडे लगे हुए हैं चारों तरफ से मैं टिक ही नहीं सकता, बिना मेरे के । इसलिए जितना तुम चीजों को कह सकते हो मेरा, जितनी ज्यादा चीजे़ं तुम्हारे पास हैं कहने को मेरी, उतना तुम्हारा मैं बड़ा होता जाता है । और जब तुम्हारे पास कोई मेरा कहने को नहीं बचता, तो मैं को खड़े रहने की जगह नहीं बचती । मैं तत्क्षण गिर जाता है ।
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तुम मेरे को गिराओ, मैं अपने से गिर जाता है । और उस मैं के गिर जाने का नाम ---- भिक्षु । मैं का गिर जाना यानी शून्य हो जाना । वह जो भिक्षु के हाथ में भिक्षापात्र है, वह अगर हाथ में ही हो, तो बेकार है । वह उसकी आत्मा में होना चाहिए, तभी सार्थक है ।
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🔥 ओशो ~ एस धम्मो सनंतनो १२
प्रवचन ११३ संन्यास की मंगल-वेला
से संकलित ।
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