रविवार, 31 मार्च 2019

= *सर्वंगी पतिव्रत का अंग ६७(१३/१६)* =

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मनसा वाचा कर्मना, हरि जी सौं हित होइ ।*
*साहिब सन्मुख संग है, आदि निरंजन सोइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
**सर्वंगी पतिव्रत का अंग ६७** 
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छप्पन भोग न संपजै१, बिना छत्रपति२ थाल । 
त्यों षट् दर्शन३ खलक४ सब, भावहिं५ भावित६ माल ॥१३॥ 
राजा२ के थाल बिना छप्पन भोग संपन्न१ नहीं होते, वैसे ही नाथ, जंगमादि षट् भेषधारियों३ के पास ही विचारित६ साधन रूप माल मिलता है और जगत४ के प्राणियों को वही प्रिय५ लगता है । 
सोई चकवै नरपति, ज्ञान चक्र हृद हाथ । 
शस्त्रहु सब दिशि गम गमन, सर्वंगी सब नाथ ॥१४॥ 
वही चक्रवर्ती राजा है, जिसके हृदय-हाथ में ज्ञान-चक्र है, जैसे चक्र रूप शस्त्र दिशा सब में गति करता हुआ लक्ष्य पर जाता है, वैसे ही सर्वंगी पतिव्रत वाला ज्ञानी सब में गम रखते हुये अपनी स्वामी चक्र ब्रह्म को ही प्राप्त होता है । 
पतिव्रत परमारथी, जो नर तरु सम रूप । 
सबको सुख दे शब्द फल, सदा सुदृढ़ भुवि२ भूप१ ॥१५॥ 
पतिव्रता और जो परमार्थी नर होते हैं वे वृक्ष के समान होते हैं, वृक्ष सदा पृथ्वी२ में दृढ़ रहकर फल देता है पतिव्रत अपने पति की सेवा में दृढ़ रहकर सब घर वालों को अपने व्यवहार से सुख देती है, वैसे ही नरों में शिरोमण१ परमार्थी नर भी सर्वंगी पतिव्रत में स्थिर रहकर शब्दों द्वारा सबको आनन्द देता है । 
रज्जब आतम बेली सुरति जड़, ब्रह्म भूमि रस लेत । 
सकल तत्त्व बेले१ बधैं, सोऊ भृश२ फल देय ॥१६॥ 
बेली की जड़ भूमि में रहकर पृथ्वी के जल रूप रस लेती है तब उसके सभी अंग समय१ पर बढते हैं । और वह अधिक२ फल देती है, वैसे ही जीवात्मा की वृति ब्रह्मचिन्तन में स्थिर रहकर ब्रह्मानन्द रूप रस लेती है तब उसके ज्ञान निष्ठा आदि सभी तत्त्व समय१ पर बढते हैं और वह साधकों को ब्रह्मानन्द रूप महान् फल देती है । 
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित सर्वंगी पतिव्रत का अंग ६७ समाप्त ॥सा. २१५६॥ 
(क्रमशः)

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