रविवार, 3 मार्च 2019

= *अन्तकाल अन्तराय ब्यौरा का अंग ६५(५/८)* =

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卐 सत्यराम सा 卐 
*साधु जन की वासना, शब्द रहै संसार ।*
*दादू आतम ले मिलै, अमर उपावनहार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*अन्तकाल अन्तराय ब्यौरा का अंग ६५* 
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बासे१ अणबासे२ पिलहिं, तिल तन कोल्हू काल । 
खल हल३ खुसी न खसबुई४, तेल तुचा५ खुलि खाल६ ॥५॥ 
तिल पुराणे१ हो वा नये२ हों दोनों ही कोल्हू में ही पिलते हैं किन्तु कोल्हू उनका छिलका५ उतार कर केवल तेल ही छीन सकता है, गंध४ तथा तेल नहीं, वैसे ही शरीर पुराणे हों वा नये हों काल उनकी चमड़ी६ में से जीवात्मा को खोल देता है किन्तु जीव की गति३ को नहीं रोक सकता । 
नाम नाज आवे नहीं, अंतक समय रु काल । 
जन रज्जब जोख्यूं१ नहीं, जप कोठे होय सुकाल ॥६॥ 
नाज कोठे में ही हो तो सुकाल ही रहता है । दुष्काल का भय नहीं रहता है और वैसे ही नाम-जप हृदय में हो तो यम के आने के समय हानि१ की संभावना नहीं रहती । 
सदा अमावस ना रहै, सदा न राहु हि ग्रास । 
तैसे संकट काल मुनि, पुनि रज्जब सुन प्रकाश ॥७॥ 
न तो सदा अमावस रहती है और न सदा चन्द्रमा को राहु ग्रसता है, चन्द्रमा में पुन: वही प्रकाश आ जाता है, वैसे ही मुनिजन को काल का संकट आता है, पुन: पूर्ववत ही आनन्द हो जाता है । 
महन्त१ महोदधि२ माँहिं थिर, चंचलता तन तीर । 
रज्जब रीझ्या देखिकर, दोय स्वभाव शरीर ॥८॥ 
समुद्र२ मध्य में तो स्थिर रहता है और तट पर चंचल रहता है, वैसे ही महान संत१ भीतर से स्थिर रहते हैं और शरीर क्रियाशील होने से चंचल रहता है, ये दोनों स्वभाव एक शरीर में देखकर के ही हम संतों में अनुरक्त हुये हैं ।
(क्रमशः)

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