रविवार, 17 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*मति मोटी उस साधु की, द्वै पख रहित समान ।*
*दादू आपा मेट कर, सेवा करै सुजान ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

'यह किया है और यह अनकिया है, इस प्रकार के द्वंद्व से मुक्त योगी के लिए कहां धर्म है, कहां काम है, कहां अर्थ, कहां विवेक?'
क्य धर्म: क्य च वा काम: क्य चार्थ क्य विवेकिता।
इदं कृतमिद नेति द्वंद्वैर्मुक्तस्य योगिन:।
सभी इसी में पड़े रहते हैं कि क्या किया और क्या नहीं किया; क्या कर पाये और क्या नहीं कर पाये—हिसाब लगाते रहते हैं। गणित बिठाते रहते हैं. इतना कमा लिया, इतना नहीं कमा पाये; यह—यह विजय कर ली, यहां-2 हार गये; यहां —यहां सफलता मिल गयी, यहां—यहां असफल हो गये। चौबीस घंटे चिंतन चल रहा है—क्या किया, क्या नहीं किया ! मरते—मरते दम तक मनुष्य यही सोचता रहता है : क्या किया, क्या नहीं किया।
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सभी की जिंदगी इसी तरह के हिसाब में लगी है. क्या कर लिया, क्या नहीं किया। पूरी जिंदगी यही जोड़ते रहेंगे? और जब जाएंगे, खाली हाथ जाएंगे। सब किया, सब अनकिया, सब पड़ा रह जायेगा। किया तो व्यर्थ हो जाता है, न किया तो व्यर्थ हो जाता है।
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'यह किया यह अनकिया, इस प्रकार के द्वंद्व से मुक्त योगी के लिए कहां धर्म !' उसके लिए तो धर्म तक का कोई अर्थ नहीं रह जाता। क्योंकि धर्म का तो अर्थ ही होता है : जो करना चाहिए, वही धर्म। अधर्म का अर्थ होता है. जो नहीं करना चाहिए !
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एक -२ शब्द को गहरे अन्तस् में उतर जानें दें - ऐसे व्यक्ति के लिए धर्म का भी कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि अब करने, न करने से ही झंझट छुड़ा ली। अब तो साक्षीभाव में आ गये। ऐसे व्यक्ति के लिए कहां धर्म, कहां काम, कहां अर्थ, कहां विवेक ! विवेक तक की कोई जरूरत नहीं है। अब ऐसा व्यक्ति डिसक्रिमिनेशन भी नहीं करता कि क्या अच्छा, क्या बुरा; क्या कर्तव्य, क्या अकर्तव्य; कौन—सी नीति, कौन—सी अनीति।
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ये सब व्यर्थ हुए। द्वंद्व गया और इस द्वंद्व के जाने पर जो पीछे शेष रह जाती है शांति, वही शांति है, वही संपदा है।
इदं कृतं इदं न कृतं द्वंद्वैर्मुक्तस्य योगिन:।
यह किया, यह नहीं किया, ऐसे द्वंद्व से जो मुक्त हो गया वही योगी है। जो किया उसने किया और जो नहीं किया उसने किया—परमात्मा जाने ! जो साक्षी हो गया वही योगी है।

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