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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= १६. राग सोरठ (१४/३)=*
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*पंडित मूरष मूरष मूरष,*
*जब लग अहं न जाई ।*
*पंडित पंडित मूरष पंडित,*
*दुबिधा दूरि गमाईं ॥६॥*
*मुक्ता बंध्या बंध्या बंध्या,*
*जब लग तजी न आसा ।*
*मुक्ता मुक्ता बंध्या मुक्ता,*
*सबतै भया उदासा ॥७॥*
*जीत्या हार्या हार्या हार्या,*
*जब लग है अज्ञांना ।*
*जीत्या जीत्या हार्या जीत्या,*
*सुन्दर ब्रह्म समांना ॥८॥*
जब तक किसी साधक का, साधना करते हुए, मिथ्याभिमान विगलित न होगा तब तक वह शास्त्रों का पंडित होते हुए भी वस्तुतः मूर्ख ही कहलायगा । यदि साधना करने से उसका मिथ्याभिमान विगलित हो गया है तो वह अवश्य ‘पंडित’ कहे जाने योग्य है ॥६॥
जब तक कोई सांसारिक आशा तृष्णा से मुक्त नहीं हुआ तब तक वह सांसारिक माया मोह से बन्धा हुआ है । जब वह संसार में सर्वथा मोह त्याग कर सांसारिक वस्तुओं का मोह त्याग देगा तभी वह ‘मुक्त’ कहे जाने का अधिकारी है, इससे पूर्व नहीं ॥७॥
जब तक कोई चिन्तक पुरुष अज्ञान से आवृत है, तब तक उसकी विजय कैसी ? और किस पर ? अज्ञान को पराजित कर ‘ज्ञानी’ बन जाने पर ही वह चिन्तक ब्रह्म तुल्य हो पाता है । तभी वह ‘ब्रह्मज्ञानी’ एवं ‘विजयी’ कहा जाता है ॥८॥
(क्रमशः)
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