शुक्रवार, 15 मार्च 2019

परिचय का अंग ३०३/३०७

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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दादू ऐसा बड़ा अगाध है, सूक्षम जैसा अंग ।
पुहुप वास तैं पतला, सो सदा हमारे संग ॥३०३॥
यह परमात्मा अगाध है, उसका अन्त कोई नहीं जान पाया । वह पुष्पगंध से भी सूक्ष्म है, व्यापक होता हुआ भी असंग है, तथा सर्वसंगी भी है । लिखा है-
“इस जीवात्मा के हृदयरूप गुहा में रहने वाला परमात्मा सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से भी महान् है । परमात्मा की इस महिमा को कोई निष्काम एवं निश्चिन्त विरला ही साधक उस सर्वाधार परमात्मा की कृपा से ही जान सकता है; क्योंकि यह आत्मा सूक्ष्म है अतः वह मन से ही जाना जा सकता है ॥३०३॥”
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दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब अंतर कुछ नांहि ।
ज्यों पाला पाणी कों मिल्या, त्यों हरिजन हरि मांहि ॥३०४॥
जैसे सूर्यताप से बर्फ के गल जाने जल और बर्फ एक हो जाते हैं, वैसे ही ब्रह्मज्ञान से अज्ञाननाश हो जाने से जीवब्रह्म का अभेद हो जाता है । लिखा है-
“तत्त्वमसि” आदि वाक्यों से उत्पन्न ब्रह्मज्ञान से अविद्या स्वकार्य सहित नष्ट हो जाती है । तब जीव-ब्रह्म का अभेद हो जाता है ॥
योगवाशिष्ठ में भी लिखा है- ‘हे राजपुत्र ! जब मुख से उद्भूत वायु का योग की युक्तियों से निरोध हो जाता है और चित्त का नाश होने पर समाधि लग जाती है । उस समय जीव सर्वत्र निर्भय होकर रहता है ॥३०४॥’
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दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब सब पड़दा दूर ।
ऐसैं मिल एकै भया, बहु दीपक पावक पूर ॥३०५॥
दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब अंतर नांही रेख ।
नाना विधि बहु भूषणां, कनक कसौटी एक ॥३०६॥
दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब पलक न पड़दा कोइ ।
डाल मूल फल बीज में, सब मिल एकै होइ ॥३०७॥
अब महाराज दृष्टान्तों के सहारे, अभेदावस्था का विस्तार से निरूपण कर रहे हैं । जैसे बहुत से दोषों का प्रकाश घनीभूत होने से पृथक् पृथक् नहीं जाना जा सकता; और इसी तरह सब आभूषणों के सुवर्ण को अग्नि में तपाकर एक कर देने के बाद उससे कोई भेद बोध करने में समर्थ नहीं है, तथा वृक्ष के बीज शाखा पलाश फल पुष्प आदि अवयव सूक्ष्म रूप से एक होकर रहते हैं; वैसे ही ज्ञान के द्वारा जब अविद्या नष्ट हो जाती है तब जीव ब्रह्म का भेद भी नष्ट हो जाता है । क्योंकि वह भेद अविद्या जन्य था और भेदमूलक अविद्या का ही जब नाश हो गया तो भेद कैसे रह सकता है ।
ब्रह्मात्मेक्यसाक्षात्कार की यह भूमिका चतुर्थीं भूमि कहलाती है । जो ब्रह्मरूपा है तथा सत्त्वापति नाम से कही गयी है । इस भूमिका में साधक जगदुत्पादक ब्रह्म को वास्तविक अद्वितीय सत्ता के स्वभाव का निश्चयकर ब्रह्म आरोपित नाम-रूप का मिथ्यात्व निश्चय कर लेता है । मुमुक्षु की जाग्रदवस्था को लेकर यह अवस्था ‘स्वप्न’ कहलाती है । जीवन्मुक्ति विवेक में लिखा है-
“अद्वैत के स्थिर होने पर, जब द्वैतबुद्धि सर्वथा नष्ट हो जाती है तब साधक चतुर्थ भूमिका में पहुँचकर सर्वजगत् को स्वप्नवत् देखता है । शरद्ॠतु में जैसे वायु से मेघ भिन्न हो जाते हैं और तब स्वच्छ आकाश ही दीखता है; वैसे ही चतुर्थी और भूमिका तक पहुँचा साधक नामरूप जगत् का प्रविलाप कर केवल ब्रह्म की सत्ता ही देखता है ॥३०५-३०७॥”
(क्रमशः)

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