शुक्रवार, 22 मार्च 2019

परिचय का अंग ३३६/३४२

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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पीवै पिलावै राम रस, माता है हुसियार ।
दादू रस पीवै घणां, औरों को उपकार ॥३३६॥
जो ज्ञानी पुरुष सब उपाधियों से रहित, एक, असंग ब्रह्म को सर्वत्र समानतया देखता है, उसके लिये संसार में कोई कर्तव्य शेष नहीं है । क्योंकि वह कृतकृत्य हो चुका है ।
वेद में लिखा है— “उस ज्ञानी को न पुण्य की कर्तव्यता है न पाप की ।”
तृप्तिदीप में लिखा है— “वह चाहे विष्णु का ध्यान करे या ब्रह्म का, वह तो साक्षिस्वरूप ही है । वह यहाँ न कुछ करता है न करवाता है ।
उन ज्ञानियों का आचार भी अव्यक्त ही है । “अद्वैत ब्रह्म को पाकर ज्ञानी जड़, उन्मत्त की तरह लोक में आचरण करता है”— ऐसा स्मृति में लिखा है ।
ज्ञानियों के व्यवहार विषय में गौड़पादाचार्य ने भी लिखा है—
“जिसने ब्रह्मतत्त्व को जान लिया उसके लिये यह संसार जड़ तथा उन्मत्त की तरह है । ज्ञानी भी संसारी पुरुषों की दृष्टि में पागल की तरह होता है । फिर भी ज्ञानी महात्मा संसार के कल्याण हेतु परोपकार की दृष्टि से ज्ञानोपदेश के लिये संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं । स्वयं ब्रह्मरस का पान करते हैं और दूसरों को भी कराते हैं । जैसे दत्तात्रेय, दुर्वासा आदि मुनि भ्रमण करते थे ।”
गीता में कहा है—
हे अर्जुन ! ज्ञानी शरीर में रहता हुआ भी न कुछ कर्म करता है न कर्मों में लिप्त होता है”॥३३६॥
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नाना विधि पिया राम रस, केती भाँति अनेक ।
दादू बहुत विवेक सौं, आत्म अविगत एक ॥३३७॥
इस लोक में नाना प्रकार के संत हैं । कोई भ्रमर के सदृश कोई चातक के, कोई हँस के तुल्य और मीन स्वभाव वाले हैं । ये सभी महात्मा नानाविध योग, यज्ञ, ज्ञान, ध्यान, वैराग्य आदि साधनों से ब्रह्मानन्द का पान करते हैं । और अन्त में ब्रह्म चिन्तन करते करते सीढियाँ चढ़ते हुए क्रमशः पराकाष्ठा तक पहुँच जाते हैं । गीता में लिखा है—
“वे दृढ़निश्चय वाले भक्तजन निरन्तर मेरा नाम-गुण कीर्तन करते हुए तथा मुझे पाने का प्रयत्न करते हुए, मुझ ही को प्रणाम करते हुए तथा मेरे ध्यान में लगे हुए अनन्य भक्ति द्वारा मेरी उपासना करते हैं ।
उन में कोई तो मुझ विराट् स्वरूप परमात्मा को ज्ञानयज्ञ से पूजन करते हुए तथा एकत्व भाव से(जो कुछ है वासुदेव ही है- इस भाव से) उपासना करते हैं । कुछ दूसरे पृथक् भाव(सेव्य-सेवक भाव) से, कुछ लोग बहुत तरह से उपासना करते हैं । कितने ही संत ध्यान द्वारा अपनी आत्मा में आत्मा का ध्यान करते हैं, दूसरे लोग सांख्य पद्धति से, कुछ दूसरे योगपद्धति से तथा अन्य भक्त निष्काम कर्मयोग द्वारा मुझको प्राप्त करते हैं ॥३३७॥”
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परिचय महात्म
परिचय का पय प्रेम रस, जे कोई पीवै ।
मतवाला माता रहै, यों दादू जीवै ॥३३८॥
परिचय का पय प्रेम रस, पीवै हित चित लाइ ।
मनसा वाचा कर्मणा, दादू काल न खाइ ॥३३९॥
परिचय पीवै राम रस, युग युग सुस्थिर होइ ।
दादू अविचल आतमा, काल न लागै कोइ ॥३४०॥
परिचय पीवै राम रस, सो अविनाशी अंग ।
काल मीच लागै नहीं, दादू सांई संग ॥३४१॥
परिचय पीवै राम रस, सुख में रहै समाइ ।
मनसा वाचा कर्मणा, दादू काल न खाइ ॥३४२॥
जो इस परिचय के अंग का प्रेम से पाठ करता है, अध्ययन करता है, मनन करता है या श्रवण करता है, वह ब्रह्मानन्द में मग्न होकर जीवन्मुक्त हो जाता है । जो काम-क्रोधादि काल रूप है उनसे दूर हो जाता है । अमर हो जाता है । निरोग, धनधान्यसम्पन्न(लक्ष्मीवान्) एवं पूर्ण आयु वाला हो जाता है । अविनाशी ब्रह्म के साथ आनन्द लेता है अन्त में निरतिशय आनन्दरूप ब्रह्म को प्राप्त कर जीवन्मुक्त हो विदेहमुक्ति को प्राप्त कर लेता है ।
(क्रमशः)

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