卐 सत्यराम सा 卐
*दादू पख काहू के ना मिलैं,*
*निष्कामी निर्पख साध ।*
*एक भरोसे राम के, खेलैं खेल अगाध ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**पतिव्रता का अंग ६६**
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साधु चलें सु राम रुचि, अगम अगोचर भाय ।
रज्जब रत सौं रत्त ह्वै, विरतों निकट न जाय ॥६१॥
संत राम की इच्छा से चलते हैं, वे अगम अगोचर राम का प्रेम हृदय में रखते हुये प्रेम करने वाले से प्रेम करते हैं और उनसे जो उपराम रहता है उनके पास नहीं जाते, उदासीन रहते हैं ।
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रज्जब मिलते सौं मिले, उन मिलते न मिलाय ।
सांई साधू एक गति१, नर देखों निरताय२ ॥६२॥
हे नरों ! विचार२ करके देखो, परमात्मा और संतों की एक सी ही चेष्टा१ होती है, दोनों मिलना चाहते हैं उससे तो मिलते हैं, नहीं मिलना चाहता उससे नहीं मिलते ।
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अण मिलतों सौं अण मिलै, मिलतों सेती मेल ।
यूं रज्जब जन की दशा, पतिव्रता का खेल ॥६३॥
परमात्मा नहीं मिलना चाहते उनसे नहीं मिलते, मिलना चाहते हैं, उनसे मिलते हैं, ऐसी ही परमात्मा के भजन की दशा होती है और पतिव्रता का चर्यारूप खेल ही ऐसा होता है, वह भी पति के अनुकूल ही चर्या रखती है ।
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रज्जब एकों एक है, अनेकों सु अनेक ।
सांई सेवक एक मत, यहु पतिव्रत सु विवेक ॥६४॥
एक पतिव्रत वाले के लिये तो एक प्रभु ही उपास्य है, और जिसके हृदय में अनेकों का राग है, उसके लिये अनेक हैं, प्रभु और सेवक का एकमत होना अर्थात प्रभु की इच्छा की इच्छा में सेवक की इच्छा होना, यही पतिव्रत का सुन्दर विवेक है ।
(क्रमशः)
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