गुरुवार, 21 मार्च 2019

= १९१ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू अन्तर एक अनंत सौं, सदा निरंतर प्रीत ।*
*जिहिं प्राणों प्रीतम बसै, सो बैठा त्रिभुवन जीत ॥*
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ब्लावटस्की, जिसने थियोसाफिकल सोसायटी को जन्म दिया, एक ट्रेन में यात्रा कर रही थी। उसने अपने पास एक झोला रख छोड़ा था। बार-बार झोले में हाथ डालती और कुछ बाहर फेंकती।
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आखिर और यात्रियों की जिज्ञासा बढ़ी। फिर वे रुक न सके। उन्होंने कहा कि क्षमा करें ! अकारण आपके कार्य में बाधा देना हम उचित नहीं मानते। लेकिन हमारी जिज्ञासा अब सीमा के बाहर हो गई है। इस झोले में क्या है? और बार-बार मुट्ठी भर कर आप क्या फेंकती हैं?
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ब्लावटस्की ने कहा, देख लो झोले में। फूलों के बीज हैं। इन्हीं को मैं बाहर फेंक रही हूं ट्रेन से। उन्होंने कहा, हम अर्थ नहीं समझे ! इसका क्या सार? ब्लावटस्की ने कहा, सार ! आकाश में बादल घिरने लगे हैं। आषाढ़ आ गया। जल्दी ही वर्षा होगी। ये बीज फूल बन जाएंगे।
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मगर उन लोगों ने कहा कि क्या आपको बार-बार इसी ट्रेन में सफर करनी पड़ती है? क्या इसी रास्ते से आप बार-बार गुजरती हैं? ब्लावटस्की ने कहा कि नहीं, मैं पहली बार गुजर रही हूं और शायद दुबारा कभी मौका न आए। तो उन्होंने कहा, हम फिर समझे नहीं ! तो फिर बीज फेंकने से आपको क्या फायदा? बीज अगर फूल बने भी, तो आप तो कभी देख भी न सकेंगी।
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ब्लावटस्की ने कहा, यह थोड़े ही सवाल है कि मैं देख सकूं। कोई तो देखेगा ! सब आंखें मेरी हैं। किसी के नासापुटों में तो सुगंध भरेगी ! सब नासापुट मेरे हैं। कोई तो प्रसन्न होगा, आनंदित होगा। रोज यात्री इस ट्रेन से आते-जाते हैं हजारों; और-और ट्रेनें निकलती हैं इस रास्ते से। लाखों लोग उन फूलों को नाचते देखेंगे हवा में, सूरज में--प्रसन्न होंगे।
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एक ने कहा, लेकिन उनको तो पता भी नहीं चलेगा कि आपने ये फूल बोए हैं !
ब्लावटस्की ने कहा, इससे क्या फर्क पड़ता है कि वे जानें कि किसने फूल बोए हैं; कि वे मेरे नाम का स्मरण करें, कि मुझे धन्यवाद दें। वे प्रसन्न होंगे, इसमें मेरी प्रसन्नता है। वे आनंदित होंगे, मुझे आनंद मिल जाएगा।
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आनंद दो--आनंद मिलता है। आनंद बांटो--और तुम्हारे भीतर आनंद के नये-नये झरने फूटेंगे। आनंद देव, तुम्हें नाम दिया है--आनंद देव। दो ! आनंद को बांटो !
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बरसते बादल, सरसती वायु, पल तन्मय,
बोल रे ! कुछ खोल गांठें, बांट कुछ संचय।
बांट रे ! जग मांगता है आज रस की भीख,
भरे दिल ओ ! भरे बादल से क्रिया यह सीख।

सीख: अंतर की विकल घुमड़न बने रसदान,
तप्त भावोच्छवास झुक भेंटें धरा के प्राण।
लघु हृदय की लहर छू ले फैल नभ के छोर,
सफल हो यह साध कण-कण को अमृत में बोर।

बोल ओ बंदी हृदय की ग्रंथियों के ! बोल !
ढाल जीवन, धरा उत्सुक है अधर-पट खोल
तड़ित-कंपनत्तेज में बीते न अंतर-शक्ति
शून्य में ही चुक न जाए सिंधु की आसक्ति

दंभ है यह उच्चता, रे ! रिक्त है यह धूम
उतर भू पर, प्रणय की हरियालियों को चूम
आज छा ले सृष्टि को तू सजल भार उतार
कामना हो फलवती, हो फूल का संसार

मुक्त हो तू, महत हो तू, ज्यों अमित आकाश
छोड़ यह संकोच, मन रे ! तोड़ मिट्टी के पाश।
मिट्टी के बंधन छोड़ो; मिट्टी का अर्थशास्त्र छोड़ो; आत्मा का अर्थशास्त्र समझो। 
इस जगत में तो चीजें बचाओ, तो बचती हैं; बांटो--समाप्त हो जाती हैं। भीतर के जगत में उलटा नियम है: बचाओ--नष्ट हो जाती हैं। बांटो--बच जाती हैं।
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मृत्यु के क्षण में तुम पाओगे: तुम्हारे साथ वही जाएगा, जो बांटा, जो दिया; जो बेशर्त दिया, जिसमें कोई अपेक्षा भी न रखी; जिसमें उत्तर की कोई आकांक्षा भी न थी; जिसमें धन्यवाद मिले, इतना भी भाव नहीं था। ऐसा जो दिया, वही मृत्यु में तुम्हारे साथ जाएगा। वही तुम्हारी असली संपदा है, वही तुम्हारा संचय है। जैसे बादल बरसते हैं; इनसे कुछ सीखो।

मृत्योर्मा अमृत गमय-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-10

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