#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*ज्यूं चातक के चित जल बसैं, ज्यूं पानी बिन मीन ।*
*जैसे चंद चकोर है, ऐसे दादू हरि सौं कीन ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**पतिव्रता का अंग ६६**
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सूरज वंशी कमलनी, शशि देख कुमिलाय ।
त्यूं रज्जब बरतै राम सौं, दूजा दिल न समाय ॥४९॥
सूर्य वंशी कमलिनी जैसे चन्द्रमा को देखकर कुम्हला जाती है, वैसे ही हमारा राम से बरताव है, राम के बिना हमारे हृदय में भी दूसरा नहीं समाता ।
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सीप समुद्र हि पीठ दे, मुख कीन्हा दिशि मेह१ ।
रज्जब विरची२ वारि निधि, स्वाति बूंद के नेह ॥५०॥
सीप समुद्र को पीठ देकर बादल१ की और मुख करती है, समुद्र जल से विरक्त२ होकर स्वाति बिन्दु से प्रेम करती है, वैसे ही संत संसार को पीठ देकर भगवान की ओर वृति लगाते हैं, विषयों से विरक्त होकर भजन - वैराग्य द्वारा भगवान में प्रेम करते हैं ।
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रज्जब केलि सीप सारँग के, स्वाति बूंद आधार ।
छंट छंट में छानिले१, धन्य पतिव्रत व्यवहार ॥५१॥
केला(एक जाति के केले में स्वाति बिन्दु से कपूर बनता है और अन्य बिन्दु से नहीं बनता) सीप और चातक पक्षी, इनके स्वाति बिन्दु का ही आधार है, ये बिन्दु -बिन्दु की परीक्षा१ करके लेते हैं । स्वाति से भिन्न बिन्दु को नहीं लेते, पतिव्रत व्यवहार को धन्यवाद है, वैसे ही संत राम से भिन्न को उपास्य रूप से ग्रहण नहीं करते ।
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सीप विभीषण का वस्त, वरतहुं पाल्या अंक१ ।
स्वाति मुकत उनको दिये, उनहिं समर्पी लंक ॥५२॥
सीप और विभीक्षण का पतिव्रत देखो, उन्होने पूर्ण रूप से पालन किया तभी स्वाती और राम१ के समीप गये, स्वाति ने सीप को मोती दिया और राम ने विभीक्षण को लंका का राज्य दिया, वैसे ही जो प्रभु से प्रतिव्रत रखते हैं, उनकी भी इच्छापूर्ण होती है ।
(क्रमशः)

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