रविवार, 24 मार्च 2019

= १९८ =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*सब आया उस एक में, डाल पान फल फूल ।*
*दादू पीछे क्या रह्या, जब निज पकड़या मूल ॥*
*साधू राखै राम को, संसारी माया ।*
*संसारी पल्लव गहै, मूल साधू पाया ॥*
=====================
साभार ~ oshoganga.blogspot.com
.
एक संत को—पुरानी कथा है—एक सम्राट ने कहा कि आपको मैं सदा इस वृक्ष के नीचे बैठे देखता हूं मेरे मन में बड़ी श्रद्धा जन्मती है। आपके प्रति मुझे बड़ा भाव पैदा होता है। जब भी मैं यहां से गुजरता हूं कुछ घटता है। आप महल चलें। आप यहां न बैठें। आप मेरे मेहमान बनें। आप जैसे महापुरुष यहां वृक्ष के नीचे बैठे हैं ! धूप— धाप, वर्षा—गर्मी ! आप चलें।
.
वह संत उठ कर खड़े हो गए और कहा, अच्छा। सम्राट थोड़ा झिझका, क्योंकि उसकी परिभाषा ही त्याग की दूसरी थी......। सम्राट ने सोचा था कि संन्यासी कहेगा, ‘अरे कहां तू मुझे ले जाता है कचरे में, महल इत्यादि सब कूड़ा—कर्कट ! मैं संसारी नहीं हूं, मैं संन्यासी हूं।’ तब सम्राट बिलकुल पैर में गिर गया होता।
.
लेकिन यह संन्यासी खड़ा हो गया। यह कुछ सांख्य की धारणा का आदमी रहा होगा। उसने कहा, ठीक, यहां नहीं तो वहां। तुझे दुखी क्यों करें ! चल। लेकिन सम्राट दुखी हो गया। उसने सोचा, यह कहां की झंझट ले ली सिर ! यह तो कोई ऐसे ही भोगी दिखाई पड़ता है, बना—ठना बैठा था, रास्ता ही देख रहा था कि कोई बुला ले कि चल पड़े। फंस गये इसके जाल में । 
.
लेकिन अब कह चुके तो एकदम इंकार भी नहीं कर सकते। ले आया। उसे महल में रख दिया। सुंदरतम जो भवन था महल का, उसमें रख दिया। वह अच्छे से अच्छा भोजन करता, शानदार गद्दे—तकियों पर सोता।
.
छ: महीने बाद सम्राट ने उससे कहा, महाराज, अब मुझे एक बात बतायें कि अब मुझमें और आपमें भेद क्या? अब तो हम एक ही जैसे हैं। बल्कि आपकी हालत मुझसे भी बेहतर है कि न कोई चिंता न फिक्र। हम धक्के खाते चौबीस घंटे, परेशान होते, आप मजा कर रहे ! यह तो खूब रही। फर्क क्या है? अब मुझे फर्क बता दें। मेरे मन में यह बार—बार सवाल उठता है।
.
उस संत ने कहा : यह सवाल उसी वक्त उठ गया था जब मैं उठ कर खड़ा हुआ था झाड़ के नीचे। इसका तेरे महल में आने से कोई संबंध नहीं है। वह तो जब मैं उठ कर खड़ा हो गया था और मैंने कहा चलो चलता हूं, तभी यह सवाल उठ गया था। ठीक किया, तूने इतनी देर क्यों लगाई? छ: महीने क्यों खराब किए? वहीं पूछ लेता। फर्क जानना चाहता है तो कल सुबह बताऊंगा। कल सुबह हम उठ कर गांव के बाहर चलेंगे।
.
सम्राट उसके साथ हो लिया, गांव के बाहर निकले। सूरज उग आया। सम्राट ने कहा, अब बता दें। उसने कहा, थोड़े और आगे चलें। दोपहर हो गई, साम्राज्य की सीमा आ गई; नदी पार होने लगे। सम्राट ने कहा, अब क्यों घसीटे जा रहे हैं? कहना हो तो कह दें। जो कहना है बता दें। कहां ले जा रहे हैं?
.
उस संत ने कहा : यह है मेरा उत्तर कि अब मैं तो जाता हूं तुम भी मेरे साथ आते हो? मैं पीछे लौटने वाला नहीं हूं। सम्राट ने कहा, यह कैसे हो सकता है ? मैं कैसे आ सकता हूं? पीछे राज्य है, पत्नी—बच्चे, धन—दौलत, सारा हिसाब—किताब है, मेरे बिना कैसे चलेगा? तो संत ने कहा. फर्क समझ में आया? मैं जा रहा हूं और तुम नहीं जा सकते।
.
सम्राट को एकदम फिर श्रद्धा उमड़ी। एकदम पैर पर गिर पड़ा कि नहीं महाराज। मैं भी कैसा मूढ़ कि आपको छोड़े दे रहा हूं। आप जैसे हीरे को पाकर और गंवा रहा हूं। नहीं—नहीं महाराज, आप वापिस चलिए। उस संत ने कहा, मैं तो चल सकता हूं लेकिन फिर सवाल उठ आयेगा। तू सोच ले। मैं तो अभी चल सकता हूं कि मुझे क्या फर्क कि इस तरफ गया कि इस तरफ गया ! तू सोच ले।
.
सम्राट फिर संदिग्ध हो गया। संत ने कहा, बेहतर यही है, तेरे सुख—चैन के लिए यही बेहतर है कि मैं सीधा जाऊं, लौटूं न, तो ही तू फर्क समझ पायेगा।
फर्क एक ही है संन्यासी और संसारी में कि संसारी लिप्त है, ग्रस्त है, पकड़ा हुआ है, जाल में बंधा है। संन्यासी भी वहीं है, लेकिन किसी भी क्षण जाल के बाहर हो सकता है। पीछे लौट कर नहीं देखेगा। संन्यासी वही है जो पीछे लौट कर नहीं देखता। जो हुआ, हुआ। जो नहीं हुआ, नहीं हुआ। जहां से हट गया, हट गया।
.
संसारी ग्रसित हो जाता है, बंध जाता है। नहीं कि महल किसी को बांधते हैं; महल क्या बांधेंगे? मोह बांध लेता है। इतना ही भेद है। भेद बहुत बारीक है और भेद बहुत आंतरिक है। बाहर से भेद करने में मत पड़ना, अन्यथा संसार और संन्यास में एक तरह का द्वंद्व खड़ा कर लेंगे। वही द्वंद्व सम्राट के मन में था । वह सोचता था - संन्यासी तो त्यागी और संसारी भोगी।
.
नहीं, त्यागी— भोगी दोनों संसारी। संन्यासी तो साक्षी। त्याग में भी साक्षी रहता, भोग में भी साक्षी रहता। सुख में भी साक्षी रहता, दुख में भी। साक्षी स्वाद है संन्यास का।
भगवान बुद्ध ने कहा है : कहीं से मुझे चखो, मेरा स्वाद एक ही पाओगे। जैसे कोई सागर को कहीं से भी चखे, खारा पाता है—ऐसे भगवान बुद्ध को कहीं से भी चखें, सदैव पाएंगे- बुद्धत्व, साक्षी, जागरूकता।
*‘जो तृप्त हुआ ज्ञानीपुरुष भाव और अभाव से रहित है और निर्वासना है, वह लोक—दृष्टि में कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता है।’*

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें