बुधवार, 10 अप्रैल 2019

= २७ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*झिलमिल झिलमिल तेज तुम्हारा,* 
*परगट खेलै प्राण हमारा ॥*
*नूर तुम्हारा नैनों मांही,* 
*तन मन लागा छूटै नांही ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद ११०)
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

धीरे—धीरे यह इतना सहज भाव हो जाता है कि इसमें बाहर आना, भीतर आना जरा भी अड़चन नहीं देता। एक घड़ी ऐसी आती है कि अपने भीतर के स्रोत में डूबे ही रहते हैं। करते रहते हैं काम, चलता रहता है बाजार, दुकान भी चलती है, ग्राहक से बात भी चलती, खेत—खलिहान भी चलता, गड्डा भी खोदते जमीन में, बीज भी बोते, फसल भी काटते, बात भी करते, चीत भी सुनते, सब चलता रहता है और अपने में डूबे खड़े रहते हैं। ऐसे रसलीन जो हो गया वही सिद्ध—पुरुष है।
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'स्वाभाविक रूप से जो शून्यचित्त है और सहज रूप से कर्म करता है, उस धीरपुरुष के सामान्य जन की तरह न मान है न अपमान।'
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कृतं देहेन कर्मेदं न माया शुद्धरूपिणा।
इति चिंतानुरोधी 'य: कुर्वन्‍नति न।।
'यह कर्म शरीर से किया गया है, शुद्धस्वरूप द्वारा नहीं, ऐसी चिंतना का जो अनुगमन करता है, वह कर्म करता हुआ भी नहीं करता है।'
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और अब तो जब अपने स्वरूप में डूब जाते हैं तो पता चलता है, जो हो रहा है, या तो शरीर का है या मन का है; या शरीर और मन के बाहर फैली प्रकृति का है। अपना किया हुआ कुछ भी नहीं। मैं अकर्ता हूं। मैं केवल साक्षी मात्र हूं। ऐसी चिंतना की धारा भीतर बह जाती। ऐसा सूत्र, ऐसी चिंतामणि हाथ लग जाती है।
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जब देखते हैं कि भूख लगी तो शरीर में घटना घटती है और देखनेवाले ही बने रहते हैं। सुखधार में जरा भी भेद नहीं पड़ता। इसका यह अर्थ नहीं कि भूखे मरते रहते हैं, उठते हैं, शरीर को कुछ भोजन का इंतजाम करते हैं। प्यास लगती है तो शरीर को पानी देते हैं। यह मंदिर है। इसमें देवता बसे हैं। इसकी चिंता लेते हैं, फिकर लेते हैं, लेकिन अब तादात्‍मय नहीं करते।
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अब ऐसा नहीं कहते कि मुझे भूख लगी है। अब कहते हैं, शरीर को भूख लगी है। अब चिंता करते हैं, लेकिन चिंता का रूप बदल गया। अब शरीर तृप्त हो जाता है, तो कहते हैं, शरीर तृप्त हुआ। शरीर को प्यास लगी, पानी दिया। शरीर को नींद आ गई, शरीर को विश्राम दिया। लेकिन अलिप्त, अलग—अलग, दूर—दूर, पार—पार रहते हैं।

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