बुधवार, 10 अप्रैल 2019

= *शूरातन का अंग ७१(९/१२)* =

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卐 सत्यराम सा 卐 
*पीछे को पग ना भरे, आगे को पग देइ ।*
*दादू यहु मत शूर का, अगम ठौर को लेइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**शूरातन का अंग ७१** 
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सती सिंधौरा१ हाथ लेख, काट्या मोह अराय२ । 
जन रज्जब पिव को मिली, देखो देह जराय ॥९॥ 
देखो, सती जब घर, संतान आदि का मोह जड़२ से काट डालती है, तब ही सुहाग बिन्दु लगाने के लिये हाथ में सिन्दूर का पात्र१ लेती है, वा श्मशान में जाने के लिये नारियल१ लेती है, और पति के शव के साथ अपना शरीर जलाकर पति से मिलती है, वैसे ही संत मोह को नष्ट करके अज्ञान को जला डालता है तब ब्रह्म को प्राप्त होता है । 
जहिं रचना१ में शीश दे, सोई काम अडोल२ । 
जन रज्जब युग युग रहै, शूर सती सत बोल ॥१०॥ 
जिस कार्य करने१ से शिर दिया जाता है, वह कार्य निश्चय२ ही सिद्ध होता है, शूर और सती के कार्य पूर्णता के यथार्थ वचन युग में ही सुने जाते हैं । 
साधु सराहै सो सती, जती जो युवत्यों जान । 
रज्जब साधू शूर का, वैरी करे बखान ॥११॥ 
जिसकी संत श्लाघा करे वही सती नारी है वा सदगृहस्थ है, जिसकी युवतियां यति कहकर श्लाधा करें वह यति है, ऐसे ही साधू और शूर का यशोगान शत्रु भी करते हैं । 
माया काया जाति लग, धर्म न छाड़ैंहिं धीर । 
रज्जब शूरे साहसी, वेत्ता१ बावनवीर२ ॥१२॥ 
जैसे धीर पुरुष माया, शरीर और जाति के संग लग धर्म नहीं छोड़ते, वैसे ही सहासी शूर रण नहीं छोड़ते तथा महावीर२ ज्ञानी१ योग संग्राम में कामादि को पीठ नहीं देते । 
(क्रमशः)

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