मंगलवार, 23 अप्रैल 2019

= ५२ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू राजस कर उत्पत्ति करै,*
*सात्विक कर प्रतिपाल ।*
*तामस कर परलै करै, निर्गुण कौतिकहार ॥*
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साभार ~ Soni Manoj

● इस देश में सभी को ब्रह्मज्ञान है । ●

सत्य तुम्हें ही पाना होगा । लेकिन खतरा यह है कि सुंदर-सुंदर वचन शास्त्रों के, मोहक वचन शास्त्रों के भ्रांति दे सकते हैं । ऐसा लग सकता है कि पा लिया, सब तो मालूम है !
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इस देश के बडे़ से बडे़ दुर्भाग्य में यही है कि इस देश में सभी को ब्रह्मज्ञान है । यहां पान बेचनेवाले से लेकर प्रधानमंत्री तक सबको ब्रह्मज्ञान है, क्योंकि कौन है जिसको दो-चार चौपाइयां न आती हों, कौन है जिसको गुरुग्रंथ साहब के दो-चार पद न आते हों ? कौन है जिसको गीता के कुछ श्लोक न आते हों ? कौन है जो ब्रह्मा के संबंध में थोड़ी-सी बातें न कर सके, जो सारे जगत को माया न कह सके ? जीवन कुछ कहता हो उनका, लेकिन शब्द उनके दोहराए चले जाते हैं -- 'जगत माया है ! ब्रह्मा सत्य है ।'
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ये बातें कोरी बातें हैं; इनके भीतर कोई प्राण नहीं हैं । ये लाशें हैं । ये पिंजडे़ं हैं, जिनके भीतर कोई पक्षी नहीं है । ये कितने ही हीरे-जवाहरातों से जडे़ं हों, सोने के बने हों, सावधान रहना, इनमें उलझ मत जाना ?
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तुम पूछते हो तुलसीदास : 'आपका हम बूढ़ों के लिए क्या संदेश है ?'
आत्मा न तो बूढी होती है न जवान । देह बूढी होती है । देह के साथ तादात्म्य हो तो बुढापे की भ्रांति होती है । देह बीमार हो तो बीमारी की भ्रांति होती है । देह मरे तो मृत्यु की भ्रांति होती है । मैं देह हूं, इसमें ही हमारी सारी भ्रांतियां छिपी हैं । इस तादात्म्य को छोडो । देह में हो, देह नहीं हो ।
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मैं देह का विरोधी नहीं हूं । देह मंदिर है, पूजा-स्थल है -- उतना ही पवित्र जितना काबा या काशी । उससे भी ज्यादा पवित्र, क्योंकि काबा तो फिर भी पत्थर है । देह के भीतर तो स्वयं परमात्मा विराजमान है । लेकिन स्मरण रखो कि वह जो भीतर बैठा है मेहमान हो कर, वह देह के साथ एक नहीं है, देह से भिन्न है, देह से अन्य है । फिर न कोई बुढापा है, न कोई जवानी है, न कोई बचपन है । फिर तुम शाश्वत हो । शाश्वत से संबंध जोड़ना है । शाश्वत के प्रति सजग होना है ।
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मन बूढा होता है । मन सदा ही बूढा होता है । देह तो कभी जवान भी होती है; मन कभी जवान नहीं होता मन जवान हो ही नहीं सकता । मन का गुणधर्म बुढापा है । इस सत्य को ठीक से समझो ।

मन का अर्थ ही होता है : स्मृति ! स्मृति का अर्थ होता है : जो बीत गया, जो जा चुका, जो अतीत हो चुका । मन उसी का संग्रह करता है, जो अब नहीं है । सांप तो जा चुका, रेत पर उसके चिह्न रह गए हैं । व्यक्ति तो जा चुका, धूल पर उसके पगचिह्न छूट गए हैं । ऐसा ही मन है । मन अतीत है । मन व्यतीत है । जा चुके का संग्रह है । इसलिए मन सदा ही मरा हुआ है, मुर्दा है, बूढा है ।

मन के साथ हम अपने को बहुत कस कर बांधे हुए हैं । हमने अपना सारा दांव मन के साथ लगा दिया है । हिंदू मन होता है, मुसलमान मन होता है । आत्मा न तो हिंदू होती है, न मुसलमान होती है । जिस दिन तुम मन से जागोगे, उस दिन पाओगे --- कैसा हिंदू होना, कैसा मुसलमान होना ? कैसा ज्ञान, कैसा अज्ञान ? आत्मा तो शुद्ध चैतन्य है । मन तो धूल की तरह जम जाता है दर्पण पर ।

और वह धूल तुम पर काफी जम गयी होगी । तुम्हारा नाम ही खबर देता है । तुम प्रश्न पूछते समय भी छोड़ नहीं सके । लिखते हो - पंडित तुलसीदास शास्त्री'। पांडित्य तो बूढा होगा । पांडित्य तो सडा-गला होता है । अन्यथा हो ही नहीं सकता ।

पांडित्य को छोडो । पांडित्य का क्या करोगे ? पांडित्य का अर्थ क्या होता है ? -- उधार, बासा ! औरों से इकट्ठा कर लिया । उपनिषद्, गीता, कुरान, बाइबिल, धम्मपद इन सबसे संग्रहीत कर लिया । अपना तो कुछ भी नहीं है । और जो अपना नहीं है, वह मुक्तिदायी नहीं है । जो अपना नहीं है वह बंधन बन जाता है ।

पहली तो बात यह, बूढा होना तुम्हें आवश्यक नहीं है । तुम होना ही चाहो तो बात और है । तुमने जिद्द ही कर ली हो, तुम्हारी मौज । तुमने संकल्प ही कर लिया हो बूढा रहने का, तो फिर इस दुनिया में कोई भी कुछ भी नहीं कर सकता । यह तुम्हारी स्वतंत्रता है । अन्यथा ये दोनों जो चट्टानें तुमने लटका रखी हैं अपनी गर्दन से -- पांडित्य की और शास्त्रीयता की -- इनको गिरा दो, निर्भार हो जाओ । अभी तुम्हारे पंख आकाश में खुल जाएंगे । अभी भी तुम उड़ सकते हो । कभी भी तुम उड़ सकते हो ।

मृत्यु के अंतिम क्षण तक भी व्यक्ति चाहे तो एक क्षण में परमात्मा को पा सकता है । साहस चाहिए ! साहस चाहिए -- थोथे ज्ञान को छोड़ने का ।

और बडा मजा है । लोग संसार छोड़ने को राजी, धन छोड़ने को राजी हैं, पद छोड़ने को राजी हैं, मगर ज्ञान छोड़ने को राजी नहीं है । मैं देखता हूं किसी ने गृहस्थी छोड़ दी, पत्नी छोड़ दी, बच्चे छोड़ दिए, दुकान छोड़ दी; मगर सब छोड़-छाड़ कर अब भी वह जैन है, या हिंदू है, या मुसलमान है । आश्चर्य ! ज्ञान नहीं छोडा । वह थोथा जो यांत्रिक शाब्दिक ज्ञान था, उसे और छाती से जकड़ लिया है । धन छोड़ने में कुछ बडी़ खूबी नहीं है, क्योंकि धन तो बाहर है । ज्ञान छोड़ने में मुश्किल पड़ती है, क्योंकि ज्ञान लगता है भीतर है । ज्ञान भी भीतर नहीं है; वह भी बाहर है ।

तुम जहां हो, अंतर्तम में बैठे, वहां ज्ञान भी नहीं है; वहां तो एक निर्दोष मौन है । वहां कोई शब्द नहीं है । वहां नि:शब्द है वहां तो एक संगीत है --एक मौन संगीत, एक शून्य संगीत । उसे अनाहत नाद कहो, या जो तुम्हारी मर्जी हो । समाधि कहो, निर्वाण कहो, कैवल्य कहो - जो शब्द देना हो । मगर इतना खयाल रखना कि वह शून्य संगीत है । वहां कोई शब्द नहीं है, न कोई ज्ञान है, न कोई अज्ञान है । वहां केवल शुद्ध चैतन्य है । वहां तुम सिर्फ द्रष्टामात्र हो । उस द्रष्टा के सामने ज्ञान भी बाहर है । विचार भी उस द्रष्टा के सामने दृश्य हैं ।

तुम भी जरा आंख बंद कर के कभी बैठो तो देख सकोगे - यह गीता का श्लोक जा रहा । जैसे कि रास्ते पर लोग चलते हैं ऐसे ही श्लोक चलते हैं मन के रास्ते पर । कुछ भेद नहीं है । जैसे नदी बहती है बाहर तुम किनारे पर बैठकर नदी को बहता देख सकते हो, वैसे ही भीतर बैठ कर मन की बहती हुई धारा को देख सकते हो । कोई फिल्मी गाना सुनता है, कोई शास्त्रीय ज्ञान सुनता है, मगर भेद जरा भी नहीं है । क्या फर्क है ? दोनों ही बाहर हैं । तुम द्रष्टा हो, दृश्य नहीं । तुम देखने वाले हो; जो दिखाई पड़ता है वह नहीं । बस इस द्रष्टा में रमो, तुलसीदास, मुक्त हो जाओगे बुढापे से । मुक्त हो जाओगे सारे बंधनों से ।
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और कहीं जाने की जरूरत नहीं है -- न पहाड़, न कंदराओं में । जहां हो वहीं बैठे-बैठे द्रष्टा में थिर होते जाओ । जितना ही तुम्हारे भीतर का द्रष्टा-भाव स्थिर होगा, यहीं रहोगे जैसे जल में कमल । कुछ छुएगा नहीं । कुंवारे रहोगे ।

🍁ओशो
उड़ियो पंख पसार 🕊️
सातवां प्रवचन
व्यक्ति होना धर्म है
से संकलित अंश ।
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