गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

= *शूरातन का अंग ७१(१३/१६)* =

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卐 सत्यराम सा 卐 
*पीछे को पग ना भरे, आगे को पग देइ ।*
*दादू यहु मत शूर का, अगम ठौर को लेइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**शूरातन का अंग ७१** 
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हरि के मारग चलन का, जे कुछ है चित चाव१ । 
तो रज्जब त्यागो जगत, दे तन मन शिर पाँव ॥१३॥ 
यदि हरि प्राप्ति के साधन - मार्ग में चलने का चित्त में कुछ उत्साह१ है तो शरीर के अध्यास और मन के मनोरथों के शिर पर पैर रखकर अर्थात इन्हें नष्ट करके जगत के राग को त्यागो । 
ज्ञान खंङ्ग तेतीस हत, होई चकवैं१ प्रान२ । 
जन रज्जब नौ खंड परि, बाजैं तबल निशान३ ॥१४॥ 
ज्ञान रूप तलवार द्वारा ११ रूद्र, १२ आदित्य, ८ वसु, २ अश्विनीकुमार इन ३३ देवताओं की दासता नष्ट करके ब्रह्म प्राप्ति द्वारा प्राणी२ चक्रवती१ अर्थात सर्व शिरोमणी बन जाता है फिर शरीर के नौ खंडों के उपर दशम द्वार में उसकी विजय के तबला नगाड़ा३ आदि बाजे बजने लगते हैं । 
निरति नालि दारू दरद, गोला बाइक ज्ञान । 
कुमति कपाट रू कर्म गढ, जन रज्जब यूं भान ॥१५॥ 
संत शूर विचार शक्ति रूप तोप की नालि में विरह का दर्द रूप बारूद भरते हैं, ज्ञान पूर्ण शब्द रूप गोला डालते हैं फिर अपरोक्ष ज्ञान रूप बत्ती लगाकर, कुमति रूप कपटों वाले कर्म रूप किले को तोड़ते हैं, ऐसे ब्रह्म प्राप्ति रूप विजय प्राप्त करते हैं । 
साधू लड़ैं कबंध ह्वै, पहले शीश उतार । 
जन रज्जब मारै मुवा, करै मार ही मार ॥१६॥ 
अपना शिर उतार के युद्ध करने वाला कबन्ध आप मर कर अन्यों को मारता है और साथी योद्धाओं को भी कहता है मारो मारो, वैसे ही संत भी पहले अपने अहंकार रूप शीश उतार कर कामादि से युद्ध करता है, आप मरके कामादि को मारता है और साधकों को भी कामादि को मारो मारो उपदेश देता है । 
(क्रमशः)

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