गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

= ३० =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*न जाणूं, हाँजी, चुप गहि, मेट अग्नि की झाल ।*
*सदा सजीवन सुमिरिये, दादू बंचै काल ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ मध्य का अंग)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

पकें ! पक कर ही गिरें।
भागने में बड़ा आकर्षण है। क्योंकि संसार में दुख है यह सच है। संसार में सुख भी है यह भी सच है। दुख देख कर भाग जाएंगे, लेकिन जब कुटी में बैठेंगे जाकर जंगल की तो सुख याद आएगा। अगर बाजार में हैं, तो आश्रम बड़ा प्रीतिकर लगेगा। अगर आश्रम में हैं तो बाजार की याद आने लगेगी। अगर बंबई में हैं तो कश्मीर, अगर कश्मीर में हैं तो बंबई।
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संसार में सुख और दुख मिश्रित हैं। वहां चांद भी है और सूरज भी। और मोर भी नाचते हैं और सिंह भी दहाड़ते हैं। तो जब मौजूद होते हैं संसार में तो सब उसका दुख दिखाई पड़ता है; वह उभर कर आ जाता है। जब दूर हट जाते हैं तो सब याद आती हैं सुख की बातें।
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इसलिए भागना नहीं है। यहीं रहना है। पकना है। भागना नहीं है, पकना है। पक कर गिरना है। थक जाना है, अपने से होने देना है। जल्दी न करें। जो सहज हो जाए वही सुंदर है।
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बुद्धि की समझ तो समझ ही नहीं। बुद्धि की समझ तो समझ का धोखा है। बुद्धि की समझ तो तरकीब है अपने को नासमझ रखने की। बुद्धि का अर्थ होता है. जो जानते हैं उस सबका संग्रह। जाने हुए के माध्यम से अगर सुना तो सुनेंगे ही नहीं। जाने हुए के माध्यम से सुना तो ऐसे ही सूरज की तरफ देखे रहे हैं, जैसे कोई आंख बंद करके देखे।
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जो जाने हुए बैठे हैं— पक्षपात, धारणाएं, सिद्धांत, शास्त्र,संप्रदाय— अगर उनके माध्यम से सुना तो सुनेंगे कैसे? कान तो बहरे हैं। शब्द तो भरे पड़े हैं। कुछ का कुछ सुन लेंगे। वही सुन लेंगे जो सुनना चाहते हैं।
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बुद्धि का अर्थ है, अतीत— अब तक जो जाना, समझा, गुना है। समझ का अतीत से कोई संबंध नहीं। समझ तो उसे पैदा होती है जो अतीत को सरका कर रख देता है नीचे; और सीधा वर्तमान के क्षण को देखता है— अतीत के माध्यम से नहीं, सीधा—सीधा, प्रत्यक्ष, परोक्ष नहीं। बीच में कोई माध्यम नहीं होता।
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खाली हो गए निर्मल दर्पण की भांति, जिस पर कोई रेखा नहीं विचार की, अतीत की कोई राख नहीं; सीधा देखा खुली आंखों से, कोई पर्दा नहीं, और सुना तो एक समझ पैदा होगी। उस समझ का नाम ही प्रज्ञा, विवेक। वही समझ रूपांतरण लाती है। बुद्धि से सुना तो सहमत हो जाएंगे, असहमत हो जाएंगे। बुद्धि को हटा कर सुना, रूपांतरित हो जाएंगे; सहमति—असहमति का सवाल ही नहीं।
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सत्य के साथ कोई सहमत होता, असहमत होता? सत्य के साथ बोलो कैसे सहमत होएंगे? सत्य के साथ सहमत होने का तो यह अर्थ होगा कि पहले से ही जानते थे। सुना, राजी हो गए।कहा, ठीक; यही तो सच है। यह तो प्रत्यभिज्ञा हुई। यह तो मानते थे पहले से, जानते थे पहले से। गुलाब का फूल देखा, कहा गुलाब का फूल है। जानते तो पहले से थे ही; नहीं तो गुलाब का फूल कैसे पहचानते?
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सत्य को जानते हैं? जानते होते तो सहमत हो सकते थे। जानते होते और कोई गेंदे के फूल को गुलाब कहता तो असहमत हो सकते थे। जानते तो नहीं हैं। जानते नहीं हैं, इसीलिए तो खोज रहे हैं। इस सत्य को समझें कि जानते नहीं हैं। अभी गुलाब का फूल देखा नहीं। इसलिए कैसे तो सहमति भरें, कैसे असहमति भरें? न तो सिर हिलाएं सहमति में, न असहमति में। सिर ही न हिलाएं। बिना हिले सुनें।
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और जल्दी क्या है? इतनी जल्दी रहती है कि जल्दी से पकड़ लें—क्या ठीक, क्या गलत। उसी जल्दी के कारण चूके चले जाते हैं। निष्कर्ष की जल्दी न करें। सत्य के साथ ऐसा अधैर्य का व्यवहार न करें। सुन लें। जल्दी नहीं है सहमत—असहमत होने की।
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पक्षियों की सुबह की गुनगुनाहट है—राजी होते? सहमत होते? असहमत होते? निर्झर की झरझर है, कि हवा के झोंके का गुजर जाना है वृक्षों की शाखाओं से—राजी होते? न राजी होते? सहमत—असहमति का सवाल नहीं। सुन लेते हैं। आकाश में बादल घुमड़ते, सुन लेते। ऐसे ही सुनें सत्य को, क्योंकि सत्य आकाश में घुमड़ते बादलों जैसा है। ऐसे ही सुनें सत्य को, क्योंकि सत्य जलप्रपातों के नाद जैसा है। ऐसे ही सुनें सत्य को क्योंकि सत्य मनुष्यों की भाषा जैसा नहीं, पक्षियों के कलरव जैसा है।

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