#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*मड़ा न जीवै तो संग जलै, जीवै तो घर आण ।*
*जीवन मरणा राम सौं, सोई सती करि जाण ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**शूरातन का अंग ७१**
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सुभट१ शूर जेती तजै, तेती बहुड़ि२ न लेय ।
जन रज्ब पूरा पुरुष, पाछा पग क्यों देय ॥२९॥
वीर१ और संत शूर जितनी संपत्ति छोड़कर रण और योग संग्राम में उतरने लगते हैं, तब लौट२ कर उसे नहीं उठाते, वीर तो युद्ध में विजय प्राप्त करके आता है तब पुन: उसे ग्रहण करता है किन्तु पूरा संत पुरुष तो पुन: पीछे घर की ओर पैर कैसे रख सकता है ? वह तो देह त्याग कर ब्रह्म में ही लय हो जाता है ।
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आसंध१ बिन न कवाल२ परि, शूर खैंचे नाक३ ।
जन रज्जब जब आसंधै४, तब छिन-छिन होय निसांक५ ॥३०॥
शूरवीर मन लगे१ बिना ही शक्ति१ बिना केवल तलवार२ के बल पर ही अपनी टेक३ की रेखा नहीं खैंचता और जब मन लगता४ है वा शक्ति४ होती है तब प्रतिक्षण निशंक५ होकर रण विजय की प्रतिक्षा करता है ।
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रोटी पोवत कर जलै, सुन्दरि फूंके हाथ ।
जन रज्जब जब आसंधै१, भरै सले सौ बाथ२ ॥३१॥
रोटी बनाते समय तो नारी का हाथ जलने पर उसे शीतल करने के लिये फूंक लगाती है और जब उसका मन जलने१ का होता है वा सत चढना रूप शक्ति१ आती है तब चिता से गोद२ भरती है अर्थात चिता में बैठ जाती है ।
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ज्ञान खंङ्ग तले शीश दे, ब्रह्म अग्नि में सत्त१ ।
लरिया जरिबा आयु भर, कौन गहै यहु मत्त२ ॥३२॥
ज्ञान रूप तलवार के नीचे वीरता पूर्वक शीश दे और सत१ पूर्वक ब्रह्म रूप अग्नि में जले, ऐसे आयु भर लड़ने और जलने का यह सिद्धान्त२ कौन ग्रहण कर सकता है ? अर्थात इसका ग्रहण करने वाला कोई विरला ही होता है ।
(क्रमशः)
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