सोमवार, 15 अप्रैल 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*तुम तैं तब ही होइ सब, दरश परश दर हाल ।*
*हम तैं कबहुं न होइगा, जे बीतहिं जुग काल ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ बिनती का अंग)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

समर्पण का कोई और अर्थ नहीं है। समर्पण तो एक बहाना है। किसी के बहाने अपनी गांठ उतार कर रख दी। खुद तो उतारते नहीं बनता। आदत पुरानी हो गई इसको ढोने की। किसी के बहाने, किसी के सहारे उतार कर रख देते हैं। जैसे ही उतार कर रखेंगे, पाएंगे, अरे ! बड़ा पागलपन था। व्यर्थ ही इसे ढो रहे थे। चाहते तो बिना समर्पण के भी उतार कर रख सकते थे। लेकिन यह समर्पण के बाद ही पता चलेगा।
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समर्पण तो बहाना है। गुरु तो बहाना है। ऐसा कुछ है नहीं कि बिना गुरु के उतार नहीं सकते। चाहें तो बिना गुरु के भी उतार सकते हैं, लेकिन संभावना कम है। लोग तो गुरु से भी बचने की कोशिश कर रहे हैं, तो अकेले में तो बच ही जाएंगे। अकेले में भूल ही जाएंगे उतारने की बात।

यह तो ऐसा ही है, सुबह पांच बजे उठना है, ट्रेन पकड़नी है, तो दो उपाय हैं. या तो अपने पर भरोसा करें कि उठ आऊंगा पांच बजे, या अलार्म घड़ी भर कर रख दें। उठ सकते हैं खुद भी। थोड़ा संकल्प का बल चाहिए। अगर थोड़ी हिम्मत हो तो अपने को रात कह कर सो जा सकते हैं कि पांच बजे से एक मिनट भी ज्यादा नहीं सोना है! ऐसा अगर जोर से कह दिया, और गौर से सुन लिया और धारण कर ली इस बात को, तो पांच बजे से रत्ती भर भी आगे नहीं सो सकेंगे। पांच बजे ठीक आंख खुल जाएगी।
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अगर अपनी ही बात मान सकते हैं, तब तो बहुत ही अच्छा। अगर स्वयं पर भरोसा न हो, और डर हो कि जब कह रहे हैं तभी जान रहे हैं कि यह कुछ होने वाला थोड़े ही है ! कह रहे हैं कि पांच बजे सुबह उठ आना। लेकिन कहते वक्त भी जान रहे हैं कि यह कहीं होनेवाला थोड़े ही ! ऐसे तो कई दफे कह चुके। कभी हुआ?
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गुरु के पास समर्पण का केवल इतना ही अर्थ है कि अपने से नहीं होता तो अलार्म भर दें। गुरु तो अलार्म है। जगा देगा। स्वयं अपने से नहीं बनता तो वह जगा देगा।
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समर्पण का और क्या अर्थ है? समर्पण का इतना सा सीधा सा अर्थ है कि तुम्हारे चरणों में निवेदन करता हूं कि मुझसे तो जागना हो नहीं सकता। और यह भी मुझे पक्का है कि तुम भी मुझे उठाओगे तो मैं बाधा डालूंगा। यह भी मैं नहीं कहता कि मैं बाधा नहीं डालूंगा। मैं सहयोगी होऊंगा यह भी पक्का नहीं है।
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मगर प्रार्थना है मेरी : मेरी बाधाओं पर ध्यान न देना। मेरी नासमझियों का हिसाब न रखना। यह मैं तुमसे प्रार्थना कर रहा हूं लेकिन मुझे जगाना। मुझे जागना है। और तुम्हारे सहारे के बिना न जाग सकूंगा।
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समर्पण का इतना ही अर्थ है कि अपना अहंकार किसी के चरणों में रख देते हैं और उससे निवेदन कर देते हैं कि वह खींच ले, उठा ले, जगा ले। नींद गहरी है; जन्मों—जन्मों की है। अगर स्वयं जाग सकें, बड़ा शुभ। कोई जरूरत नहीं। किसी गुरु को कष्ट देने की कोई जरूरत नहीं। कोई गुरु उत्सुक नहीं है। क्योंकि किसी को भी जगाना कोई सस्ता मामला नहीं है, उपद्रव का मामला है। कोई धन्यवाद थोड़े ही देता है !
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फिर पूछ रहे हैं 'व्यक्तित्व की पूजा न कर व्यक्ति की पूजा कहां तक उचित है?' समर्पण और व्यक्ति की पूजा का कोई संबंध नहीं है। जिसके प्रति समर्पण कर दिया उसके साथ एक हो गए। पूजा कैसी? कौन आराध्य और कौन आराधक? गुरु और शिष्य के बीच पूजा का भाव ही नहीं है। शिष्य ने तो गुरु के साथ अपने को छोड़ दिया। यह तो गुरु के साथ एक हो गया। इसमें पूजा इत्यादि कुछ भी नहीं है। अगर पूजा कायम रह गई तो समझना कि समर्पण पूरा नहीं है।
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समर्पण का तो अर्थ ही यह होता है कि मैंने जोड़ दी अपनी नाव तुम्हारी नाव से। मैं अपने को पोंछ लेता हूं, तुम मेरे मालिक हुए। अब तुम ही हो, मैं नहीं हूं। अब पूजा किसकी, कैसी? यह कोई व्यक्ति—पूजा नहीं है। और इसमें एक बात और समझ लेने की जरूरत है। पूछा है, 'व्यक्तित्व की पूजा न कर व्यक्ति की पूजा कहां तक उचित है?'
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आदमी बहुत बेईमान है। आदमी की बेईमानी ऐसी है कि वह तरकीबें खोजता है। अगर उससे कहो, आदमी को प्रेम करो; तो वह कहता है, आदमियत को प्रेम करें तो कैसा? अब आदमियत को खोजेंगे कहां? जब भी प्रेम करने जाएंगे, आदमी मिलेगा; आदमियत कभी भी न मिलेगी। अब कहें, हम तो आदमियत को प्रेम करेंगे। तो आदमियत कहां.. .मनुष्यता को कहां पाएंगे?

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