मंगलवार, 23 अप्रैल 2019

= *शूरातन का अंग ७१(५८/६२)* =

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卐 सत्यराम सा 卐 
*पंच चोर चितवत रहैं, माया मोह विष झाल ।*
*चेतन पहरै आपने, कर गह खड़ग संभाल ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**शूरातन का अंग ७१** 
शूर बिना संसार सौं, विरच्या१ कदे न जाय । 
रज्जब कायर कोटि मिल, बाहर धरैं न पाय ॥५८॥ 
संत शूर हुये बिना संसार से विरक्त१ कभी नहीं हुआ जाता, विषयी कायर कोटिन मिलकर प्रयत्न करें तो भी संसार से बहार पैर रख नहीं सकते कारण विषयी विषयाशा रहित नहीं होते, विषयाशा रहते ब्रह्म प्राप्त होना संभव नहीं, संसार में ही भ्रमण करते हैं । 
शब्द सुरति पंचों मिल्यों, रज्जब कटै विकार ।
यथा जेवड़ी कूप शिल, विहरै१ बारंबार ॥५९॥ 
जैसे बारंबार कूप की शिला पर जेवड़ी आती१ है तब वह कठोर शिला भी कट जाती है, वैसे ही सदगुरु शब्द से मनोवृति और पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ बारंबार मिलती हैं, अर्थात शब्दार्थ के अनुसार चलती है, तब सभी विकार नष्ट हो जाते हैं । 
जे मन पवन१ मिल लीन ह्वै, तो प्राण२ पिशुन३ प्रहार । 
ज्यों कणजा४ रेतहिं मिल्यों ? रज्जब काटै५ सार ॥६०॥ 
जैसे लाख४ और रेत मिलकर घिसने से लोह का मेल नष्ट५ हो जाता है, वैसे ही मन और प्राण१ मिलकर समाधि में लीन होने से प्राणी२ के दुष्ट३ गुण कामादि पर अधात पहुँच कर नष्ट प्राय: हो जाते हैं । 
रे रज्जब हरि संग, हार जीत दोन्यों भली । 
तातैं खेल अघाय१, करि उछाय आणंद२ रली३ ॥६१॥ 
हरि के साथ खेलने में हार और जीत दोनों ही अच्छी है, इसलिये तृप्त१ होकर खेल और आनन्द२ उत्साह के साथ विहार३ कर । 
धीरज धारणा कठिन है, विषम१ दुहेली२ बार । 
रज्जब रण में रुप३ रहै, सब आसंघ४ मर मार ॥६२॥ 
भयंकर१ युद्ध के समय धैर्य रखना कठिन है किन्तु रण में पैर रोप३ कर सब कष्ट स्वीकार४ करते हुये शत्रुओं को मारना तथा मरना चाहिये, वैसे ही संत शूर को काम क्रोधादि के अघात से कठिन समय में धैर्य रखना कठिन२ है किन्तु वृति ब्रह्म में स्थिर करके सभी परिस्थितियों को स्वीकार करते हुये कामादि को मार कर जीवित मृतक होना चाहिये अर्थात जीवन्मुक्त होना चाहिये । 
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित शूरातन का अंग ७१ समाप्त ॥सा. २२४९॥ 
(क्रमशः)

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