#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*खेलै शीश उतार कर, अधर एक सौं आइ ।*
*दादू पावै प्रेम रस, सुख में रहै समाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**शूरातन का अंग ७१**
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भेष पक्ष भावै नहीं, भरम भुजागल१ भान२ ।
रज्जब रूप भागै नहीं, मर्द मँडे३ मैदान ॥४९॥
भेष की पक्ष अच्छी नहीं लगती, भ्रम रूप शिला१ को तोड़२ के योग - संग्राम में रूप कर भागता नहीं, मैदान में डटा३ रहता है वही मर्द है ।
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रज्जब मर्द१ मंडै२ मैदान में, शिर की आश उतार ।
अंग उघाड़ै अगम गति, बानाँ बख्तर डार ॥५०॥
वीर१ शिर की रक्षा की आशा अन्त:करण से हटाकर युद्ध के मैदान में डटता२ है, अगम ब्रह्म में जाने के लिये भेष रूप कवच को उतार कर शरीर को नंगा करता है ।
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टीका१ साधू शूर का, साँच वाच मुख घाव ।
चर्चा चोट चतुर्दिशा, आगे भाव सु पाँव ॥५१॥
शूर की श्रेष्ठता का चिन्ह१ - मुख पर घाव, शरीर के चारों ओर चोटें लगी होने पर भी युद्ध.में आगे पैर बढाना है, संत की श्रेष्ठता का चिन्ह - सत्य वचन भगवान संबन्धी वार्तालाप, और प्रभु की ओर आगे बढने का भाव है ।
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जेर१ शूर संग्राम शिर, साहिब सौं दे पीठ ।
तो रज्जब सर्वस गया, पीछे भला अदीठ२ ॥५२॥
यदि१ युद्ध शिर पर आने के समय शूर स्वामी को पीठ देता है अर्थात युद्ध में नहीं जाता, तब उसका सर्वस्व ही नष्ट हो जाता है, पीछे तो स्वामी को मुख न-दिखाना२ ही अच्छा है ।
(क्रमशः)
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