रविवार, 7 अप्रैल 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*जागहु लागहु राम सौं, रैन बिहानी जाइ ।*
*सुमिर सनेही आपणा, दादू काल न खाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ सजीवन का अंग)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

*प्रेम की उच्चतम अवस्था भक्ति है, और उस अवस्था में खोजना भजन की कला है। शब्दों को तोतों की तरह दोहराने से नहीं होता भजन, प्राणों को डालने से होता है, भजन से जुड़ जाने पर मनुष्य परमात्मा जितना ही विराट हो जाता है। परंन्तु हमारी अवस्था ये ही होती है, बस एक मुट्ठी भर राख, मृत्यु के पश्च्यात इससे अधिक कुछ और होता है क्या?*
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*घट जाए तो बस एक मुट्ठी भर राख और बढ़ जाए, तो ये सारा आकाश भी छोटा है, बढ़ जाए तो सारे अस्तित्व को स्वयं में समा ले। फिर भीतर परमात्मा है। मनुष्य यदि जागे न तो मुट्ठी भर राख रह जाता है। और जाग जाए तो विराट आकाश हो जाता है। बिना जागे तृप्ति नहीं है। जागने की प्रक्रिया का नाम ही भक्ति के शास्त्र मे भजन है। और हमारे पास ज्यादा समय नहीं हैं भजन करने के लिए, जिस लिए जल्दी करे, तीव्रता करे, त्वरा करे, भजन मे देर न करे हम, मृत्यु पता नहीं किस क्षण आ जाए। भजन पूरा हो जाए, फिर आए मृत्यु, क्योँकि भजन पूरा हो जाए तो मृत्यु आकर भी नहीं आती, तब मृत्यु छू भी न सकेगी। मृत्यु छू सके, असंभव, दीपक जला हो, फिर अंधेरा पास आए, असंभव।* 
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*दीपक बुझा हो, तो अंधेरा अवश्य होगा। परन्तु हम उल्टे हैं।* 
*व्यर्थ कार्यों मे जल्दी करते हैं। क्रोध करना हो, लोभ करना हो, धन कमाना हो, देर जरा भी नहीं करते। हम लगे ही रहते हैं आपा-धापी में, दिन, रात, चौबीस घंटे, सतत भजन करना हो तो कल करेंगे, अभी तो ये सब महत्वपूर्ण है। और कल कभी आता नहीं, कभी आया है कि आएगा? ऐसे टालते-टालते मृत्यु आ जाती है।* 
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*ज्ञानीजन कहते हैं, और सब में देर चलेगी। क्रोध न किया तो क्या बिगड़ेगा। लोभ न किया तो क्या खो जाएगा? माया-मोह का विस्तार न भी किया तो कुछ गंवाया नहीं। ऐसे भी मृत्यु सब छीन लेगी। मृत्यु जिसे छीन लेगी उसे इकट्ठा किया, न किया, सब बराबर है। जिसे मृत्यु नहीं छीन सकेगी, भक्त उसे भजन कहते हैं।* 
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*जिसे मृत्यु न छीन पाए, वही वास्तविक संपदा है। और ये संपदा जिसके पास है उसी का जीवन वास्तविक जीवन है। उसके लिये मृत्यु है ही नहीं, उसके लिये मृत्यु एक झूठ है।*.
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*परमात्मा का होने का अर्थ है, मैं मिट गया। इसलिये परमात्मा मेरा तो हो ही नहीं सकता। मैं के न रहने पर ही परमात्मा का अनुभव होता है। मैं को मिटाने की कला भजन है। परमात्मा परम धन है, तो अब धन के पीछे क्यों दौड़ें?*
*परमात्मा परम पद है, तो अब और सब पद छोटे हैं। हम चूकते है क्योँकि प्रेम है समर्पण, प्रेम है अहंकार, विसर्जन। मनुष्य अहंकार-विसर्जन कर नहीँ पाता और अटका रह जाता है संसार मेँ।*

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