#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू ऐसा बड़ा अगाध है, सूक्षम जैसा अंग ।*
*पुहुप वास तैं पतला, सो सदा हमारे संग ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**प्रेम का अंग ७०**
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प्रेम प्रीति हित नेह के, रज्जब दुविधा नाँहिं ।
सेवक स्वामी एक ह्वैं, आये इस घर माँहिं ॥५॥
प्रेत प्रीति, हित, स्नेह, इन शब्दों का अर्थ जिसमें हो, उसके हृदय में दुविधा नहीं रहती इस प्रेम रूप घर में आने पर तो सेवक-स्वामी दोनों एक ही हो जाते हैं ।
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प्रेम प्रीति हित नेह की, रज्जब ऊबट१ बाट ।
सेवक को स्वामी करहि, स्वामी सेवक ठाट ॥६॥
प्रेम, प्रीति, हित, स्नेह, इनका बड़ा अटपटा१ है, सेवक को स्वामी बना देता है और स्वामी को सेवक बना देता है ।
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अम्मलबेत सु औषधि प्रेम, मो मन सार१ सूई सत२ नेम ।
पैठै माँहिं सु जाँहिं विलाय, गुण हैं गात३ नहीं निरताय४ ॥७॥
प्रेम अम्मलबेत औषधि के समान है और मेरा मन लोह१ की सुई के समान है, अम्मलबेत में सूई प्रवेश कर जाय तो गल कर उसमें लय हो जाती है, उसका आकार३ नहीं रहता किन्तु गुण रह जाता है वैसे ही यदि सच्चे२ नियम से मेरा मन प्रेम में प्रवेश कर जाय तो लय हो जायेगा, विचार४ करके देखो, उसका भी स्वरूप संकल्प विकल्प तो उस समय नहीं दीखता किन्तु सूक्षम गुण रहता है ।
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दाख बंदगी१ सब भली, बेदाना है प्रेम ।
रज्जब देख्या बीज बिन, जैसे ओला हेम२ ॥८॥
दाख सभी अच्छे होते हैं किन्तु बिना बीज जैसे बर्फ२ का ओला होता है वैसे तो बेदाना होता है, वैसे ही सेवा१-भक्ति तो सभी अच्छी है किन्तु अहंकार रूप बीज बिना तो प्रेमा-भक्ति ही होती है ।
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प्यार प्रीति हित स्नेह मुहब्बत, पंच नाम इक प्रेम ।
उभय अंग एकठ करहि, मनसा वाचा नेम ॥९॥
जिस प्रेम के प्यार, प्रीति, हित, स्नेह और प्रेम ये पाँच नाम हैं, वह प्रेम, प्रेमी और प्रेम पात्र दोनों के स्वरूप को नियम से एक कर देते हैं, यह हम मन वचन से यथार्थ ही कहते हैं ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित पार प्रेम का अंग ७० समाप्त ॥सा. २१८७॥
(क्रमशः)
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