मंगलवार, 2 अप्रैल 2019

= *व्यभिचार का अंग ६८(५/९)* =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐 
*सखी न खेलै सुन्दरी, अपने पीव सौं जाग ।*
*स्वाद न पाया प्रेम का, रही नहीं उर लाग ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**व्यभिचार का अंग ६८**
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निश्चय छाडे नाम का, आन१ धर्म उरधार । 
सीप स्वाति मधि सिन्धु जल, मन मुक्ता ह्वै ख्वार ॥५॥ 
सीप यदि स्वाति जल के मध्य समुद्र जल को लेती है तो उसका मोती खराब हो जाता है, वैसे ही राम नाम निश्चय छोड़कर अन्य१ धर्म को हृदय में धारण करने से मन खराब हो जाता है । 
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मुख माने मन में अमन, दिल दुविधा नहीं जाय । 
रज्जब सीझे कौन विधि, इहिं व्यभिचारी भाय ॥६॥ 
जो मुख से तो भगवान् को मानने का वचन कहते हैं और मन में नहीं मानते, हृदय की दुविधा नहीं जाती, इस व्यभिचारी भाव से प्राणी का भगवत् प्राप्ति कार्य कैसे सिद्ध होगा । 
रज्जब रही न मीत बिन, पीहर अरू सुसराड़ि । 
सो सुकली१ माने नहीं, वचन बड़ों की बाडि ॥७॥ 
अच्छी१ बलवान गो बाड़ की आड को नहीं मानती कूदकर खेत में चली जाती है, वैसे ही व्यभिचारिणी नारी बड़े पुरुषों के पतिव्रत पालन रूप वचनों को नहीं मानती, वह पीहर तथा ससुराल दोनों ही स्थानों में जार मित्र बिना नहीं रहती । 
नारी पुरुष न नेह, दुख सुहाग निश दिन भरे । 
रज्जब कौन सनेह, सती भई शठ भाव ले ॥८॥ 
नारी -पुरुष का परस्पर स्नेह तो नहीं रहा, अपने जीवन के दिन रात्रि में दुहाग का दु:ख ही भोगती रही, व्यभिचारिणियों के हृदय में पति के लिये कौन - सा प्रेम है ? वे तो दुष्ट भाव से ही लोगों को दिखाने के लिये सती हुई हैं । 
तन पतिव्रत मन मूर्खी, लखे न पिव१ प्रस्ताव२ । 
रज्जब रूठे से रहैं, उभय सु सारो आव३ ॥९॥ 
शरीर से पतिव्रता बनी रहे किन्तु मन में मूर्खा ही रहे, समय पर कही पति१ की बात२ न समझे और दोनों सभी आयु३ में रुष्ट से ही रहें, ऐसा पतिव्रत भी शोभन नहीं होता, वैसे ही साधक की वृति भी यदि प्रभु में न लगकर अन्य में लगती है तो वह व्यभिचार ही है, निरन्तर प्रभु में लगना ही सहचार है वही पतिव्रत है । 
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित व्यभिचार का अंग ६८ समाप्त ॥ सा. २१६५ ॥ 
(क्रमशः)

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