बुधवार, 17 अप्रैल 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
फल कारण सेवा करै, जाचै त्रिभुवन राव ।
दादू सो सेवक नहीं, खेलै अपना दाव ॥
*(श्री दादूवाणी ~ निष्कर्मी पतिव्रता का अंग)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

लोग पूछते हैं, अगर ध्यान करेंगे तो सुख—संपत्ति मिलेगी?
सुख—संपत्ति मिलेगी, अगर ध्यान करेंगे?
अब ऐसा मनुष्य ध्यान कैसे करेगा? यह तो सुख—संपत्ति चाहने के लिए ही ध्यान करना चाहता है। अब जब यह ध्यान करने बैठे और सुख—संपत्ति के विचार उठने लगें तो आश्चर्य क्या है? फिर यह कहेगा कि ध्यान नहीं होता क्योंकि विचार चलते हैं। जब ध्यान करने बैठता है तो विचार चलते हैं, तो सोचता है विचार नहीं चलने चाहिए, तो विचारों को रोकता है। और ध्यान करने बैठा ही आकांक्षा से है। क्षुद्र आशय—सुख—संपत्ति !
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कोई कहता है ध्यान करेंगे तो स्वास्थ्य मिलेगा? कोई कहता है ध्यान करेंगे तो सफलता हाथ लगेगी? अभी तो विफलता ही विफलता लगती है। ध्यान से जीवन का ढंग बदल जाएगा? सफलता हाथ लगेगी?
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अब यह जो आदमी सफलता की आकांक्षा से बैठा है पालथी मार कर, आंख बंद करके, इसके भीतर सफलता की तरंगें तो चल ही रही हैं। उलझा रहता था बाजार में तो शायद इतना पता भी न चलता था। अब खाली बैठ गया है सिद्धासन लगा कर, अब कोई काम भी न रहा, तरंगें और शुद्ध होकर चलेंगी। उलझन भी न रही कोई। मगर आधी तो बह रही है। अंधड़ तो जारी है।
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सांख्य के अनुसार आकांक्षा की आंधी अंधा बनाए हुए है। आकांक्षा की आंधी ने सीमा दे दी है। वही हो गए हैं, जो आकांक्षा पाल ली है। अगर वस्तुओं को संग्रह करने में लगे हैं तो अंतत: पाएंगे, वस्तुओं जैसे ही गए—बीते हो गए हैं। किसी कचरेघर में फेंक देने योग्य हो गए। अगर धन चाहा तो एक दिन पाएंगे, कि धन के ठीकरे हो गए। जो चाहेंगे वैसे ही हो जाएंगे। क्योंकि चाह से सीमा बनती है। और चाह का रंग—रंगत चढ़ जाता है। वैसे ही हो जाते हैं।
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कभी देखा—कंजूस आदमी की आंखें देखीं? उनमें वैसी ही गंदी घिनौनी छाया दिखाई पड़ने लगती है जैसे घिसे—पिटे सिक्कों पर होती है। कंजूस, कृपण आदमी का चेहरा देखा? उसमें वैसा ही चिकनापन दिखाई पड़ने लगता है घिनौना जैसा सिक्कों पर होता है। घिसते हैं एक हाथ, दूसरे हाथ, उधार चलते रहते हैं, वैसा ही घिनौनापन उसके चेहरे पर आ जाता है।
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जो चाहेंगे, जो चाह होगी वही मूर्ति बन जाएगी। कामी की आंख देखी? उसका चेहरा देखा? उसके चेहरे पर कामवासना प्रगाढ़ होकर मौजूद हो जाती है। उसके मन की भी पूछने की जरूरत नहीं, उसका चेहरा ही बता देगा। क्योंकि चित्त पूरा का पूरा चेहरे पर उंडला आता है। चेहरा तो दर्पण है। जो आकांक्षा भीतर चलती है, चेहरे पर उसके चिह्न बन जाते हैं, मिटते नहीं।

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