गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

= *रस का अंग ६९(५/८)* =

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卐 सत्यराम सा 卐 
*दादू मीठा राम रस, एक घूँट कर जाऊँ ।*
*पुणग न पीछे को रहे, सब हिरदै मांहि समाऊँ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**रस का अंग ६९** 
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अविगत१ अलख अनन्त रस, पीवै प्राणि प्रवीन ।
जन रज्जब रसमय२ हुआ, निकल न जाई भीन ॥५॥ 
जो चतुर प्राणी मन इन्द्रियों अविषय, अलख, अनन्त ब्रह्म१-रस का पान करता है, वह ब्रह्मरूप२ ही हो जाता है, ब्रह्म से निकल कर भिन्न लोकादि को नहीं जाता । 
हरि दरिया में मीन मन, पीछै प्रेम अगाध१ । 
महा मगन२ रस में रहै, जन रज्जब सो साध ॥६॥ 
अथाह१ दरिया में मच्छी रोम रोम से जल पान करती हुई आनन्द मग्न२ रहती है, वैसे ही जो संत चिन्तन द्वारा अगाध हरि में रह कर, हरि-प्रेम, को पान करता है, वह उस हरि-रस में अत्यन्त मग्न रहता है । 
रज्जब रहै न देह में, मगन मुदित ह्वै जाय । 
लूंण गूण१ ज्यों नीर में, ता में क्या ठहराय ॥७॥ 
जैसे लौण की बोरी१ जल में डालने पर सब लौंण जल में निमग्न हो जाता है, बोरी में क्या रहता है ? वैसे ही भजन-रस का रसिया देह की भक्ति में नहीं रहता, वह प्रभु में ही निमग्न होकर आनन्दित रहता है । 
अमल१ अमोलिक२ नाम का, साधु सदा पीवंत । 
मस्त वस्तु में हो रह्या, युग युग सो जीवंत ॥८॥ 
जो साधु राम-नाम -चिन्तन रूप अमूल्य२ नशा१ पीता है और ब्रह्म-वस्तु में मस्त हुआ रहता है, वह ब्रह्मरूप होकर प्रति युग में जीवित रहता है । 
(क्रमशः)

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