शनिवार, 23 मार्च 2019

परिचय का अंग ३४३/३४७


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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परिचय पीवै राम रस, राता सिरजनहार ।
दादू कुछ व्यापै नहीं, ते छूटे संसार ॥३४३॥
जीवन्मुक्त विवेक में लिखा है-
“ज्ञानी, महात्मा ज्ञानस्वरूप, आकाशवत् असंग, एक, अजन्मा अविनाशी, निर्लेप, सर्वगत जो अद्वितीय ब्रह्म है उसको प्राप्तकर जीवन्मुक्त हो कर मुक्त हो जाता है । ‘जो ब्रह्म है वही मैं हूँ’ – ऐसा उसे अनुभव होता है”॥३४३॥
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अमृत भोजन राम रस, काहे न विलसै खाइ ।
काल विचारा क्या करै, रम रम राम समाइ ॥३४४॥
परचै के अंग का माहात्म्य वर्णित करने के बाद, महाराज अब साधक को उपदेश कर रहे हैं- हे साधक ! रामरस का पान अमृतपान के तुल्य है । रामनाम का जप करने वाला अमर हो जाता है । यदि तूँ अमर होना चाहता है तो तूँ भी रामरस का पान कर । रामरस पीने वाले को काल का भी भय नहीं रहता । कठोपनिषद् में लिखा है—
“जो कुछ भी सचराचर जगत् है यह सब अपने कारणस्वरूप ब्रह्म से ही प्रकट हुआ है । प्राणस्वरूप परमात्मा में ही चेष्टा करता है । जो उठे हुए वज्र के समान महान् भयकारी, सर्वशक्तिमान परमेश्वर को जानते हैं वे अमर हो जाते हैं । तथा जन्म-मरण रूप भय से मुक्त हो जाते हैं ।”
“इसी के भय से अग्नि तपता है, इसी के भय से सूर्य । इसी के भय से इन्द्र, वायु और पाँचवाँ मृत्युदेव भी अपने अपने कार्य में लगे हुए हैं”॥३४४॥
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सजीवन
दादू जीव अजा बिघ काल है, छेली जाया सोइ ।
जब कुछ बस नहीं काल का, तब मीनी का मुख होइ ॥३४५॥
यद्यपि यह जीवात्मा ब्रह्मरूप है तथापि अविद्या काम कर्म के वश में होने के कारण स्वयं ही अविद्या से भ्रान्त होकर, स्वरूप को भूलकर, अपने आपको कर्ताभोक्ता मानता हुआ, उस कारण सुखी-दुःखी होता हुआ, उनमें आबद्ध हो गया । और स्वयं ही कालरूप व्याघ्र को पैदा कर लिया और स्वयं ही जन्म-मरण चक्र में पड़ गया । जब कोई सद्गुरु ने आकर ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्यों से ‘तूँ ब्रह्म है, जीव नहीं –’ यह उपदेश किया तब यह जीव अपने को संसार से पृथक् कर स्वयं ब्रह्मरूप जानकर काल-भय से मुक्त हो जाता है । जैसे कुत्ते को देखकर बिल्ली भाग जाती है, वैसे ही ब्रह्मरूप जीव को देखकर कालभय स्वयं ही निवृत्त हो जाता है । अर्थात् अज्ञानजन्य यहाँ भय था, अज्ञान के निवृत्त होने से वह भय भी निवृत्त हो गया ॥३४५॥
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मन लवरू के पंख हैं, उनमनि चढै आकास ।
पग रहि पूरे साच के, रोपि रह्या हरि पास ॥३४६॥
इस मन को एक पक्षी के रूप में जानो । जब यह उन्मनी मुद्रा से समाहित होकर एकाग्र हो जाता है तब सत्य ब्रह्म में स्थित होकर आनन्दस्वरूप हो जाता है ।
उन्माहीभाव का लक्षण हठयोगदीपिका के ३९ वें श्लोक में यों दिया गया है-
नेत्रों की कनीनिकारूप तारों को ज्योति अर्थात् तारों को नासिका के अग्रभाग में संयोग करने से प्रकाशमान तेज में संयुक्तकर भ्रुकुटियों को किंचित् ऊपर कर, पूर्वोक्त ‘अन्तर्लक्षण बहिर्दृष्टि’ रूप योग में अपने मन को युक्त करता हुआ योगी क्षणमात्र में उन्मनीकारक हो जाता है । अर्थात पूर्वोक्त अवस्थायुक्त योगी को उन्मनीमुद्रा हो जाती है ॥३४६॥
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तन मन वृक्ष बबूल का, कांटे लागे सूल ।
दादू माखण ह्वै गया, काहू का अस्थूल ॥३४७॥
वासना सहित मन और बुद्धि काँटे वाले वृक्ष की तरह दुःख ही पैदा करते हैं । जिस साधक के ज्ञानद्वारा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि चित्त दोष नष्ट हो गये, जो कि ज्ञान के प्रतिबन्धक हैं, तब उसके मन में ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न हो गयी जो महान् आमोद-प्रमोद की देनेवाली तथा त्रिविध ताप को नष्ट करने वाली है । उसका चित्त, उस ब्रह्माकार वृत्ति से वासना नष्ट हो जाने के कारण घृत की तरह शुद्ध हो जाता है । कर्मपाश नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार ब्रह्मतत्त्व ज्ञान हो जाने पर, उस साधक का कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता ।
योगवासिष्ठ में लिखा है-
“वासनावाली बुद्धि दोषोत्पादक ही होती है । जैसे कण्टकाकीर्ण भूमि में काँटे वाले वृक्ष ही उत्पन्न होते हैं ।”
और जैसे बुद्धि ने वासना कभी देखी ही नहीं, तथा जो रागद्वेष से सर्वथारहित है, तथा जो सभी प्रकार के फैलाव से रहित है अर्थात् कहीं भी आसक्त नहीं है, ऐसी बुद्धि शनैः शनैः शान्त हो जाती है ॥३४७॥
(क्रमशः)

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