बुधवार, 31 जुलाई 2024

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*दादू मेरा एक मुख, कीर्ति अनन्त अपार ।*
*गुण केते परिमित नहीं, रहे विचार विचार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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उसकी महिमा का कोई अंत नहीं है। जो भी हम कहें वह थोड़ा है। और जो भी हम कहें उससे हमारी असमर्थता पता चलती है। रवींद्रनाथ मरणशय्या पर थे। एक पुराने मित्र ने उनसे कहा कि आप तो प्रसन्न भाव से विदा हो सकते हैं। क्योंकि जो करना था आपने कर लिया। खूब सम्मान पाया, गीत लिखे, सारे जगत में ख्याति पायी, महाकवि की तरह लाखों लोगों ने भक्ति दी; आप तो निश्चिंत मन से जा सकते हैं। कुछ अधूरा नहीं छोड़ा।
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रवींद्रनाथ ने आंख खोली और उन्होंने कहा कि मत कहो ऐसी बात। क्योंकि मैं तो परमात्मा से यही प्रार्थना कर रहा था कि जो मैं गाना चाहता था, वह तो अभी तक गा नहीं पाया। जो कहना चाहता था, वह तो अभी तक कहा नहीं। और अभी तक तो केवल साज बिठाने में ही समय बीत गया। अभी तेरी महिमा का गान शुरू कहां हुआ था ! और यह तो विदा का क्षण आ गया।
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रवींद्रनाथ ने छः हजार गीत लिखे हैं। और रवींद्रनाथ के सारे गीत ही परमात्मा की महिमा के गीत हैं। फिर भी रवींद्रनाथ कहते हैं कि अभी साज ही बिठा पाया था। अभी संगीत शुरू कहां हुआ था ? और यह जाने का वक्त आ गया। यही नानक कहते हैं। यही सभी ऋषियों का अनुभव है कि जो भी हम कहें, वह साज का बिठाना ही सिद्ध होता है। उसका गीत गाया ही नहीं जा सकता।
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कौन गाएगा उसका गीत ? हम इस छोटे से व्यक्तित्व में कैसे उस विराट को समाएंगे ? मुट्ठी में आकाश को बांधने की कोशिश कैसे पूरी होगी ? हमारे सारे प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं। और सब कर के ही हमें सिर्फ अपनी असमर्थता का पता चलता है। पर वही पता चल जाए तो समझ का जन्म हुआ।
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यह खयाल में आ जाए कि मैं बहुत छोटा हूं, तो ही उसके बड़े होने का खयाल पैदा होगा। नासमझों को लगता है कि हम काफी बड़े हैं। समझदारों को लगता है कि हम बहुत छोटे हैं। जैसे-जैसे समझ बढ़ती है वैसे-वैसे हम छोटे होते जाते हैं, जैसे-जैसे हम छोटे होते हैं, उसका विराट प्रकट होता है। एक ऐसी घड़ी भी आती है इस खोज में, जब कि तुम बिलकुल ही खो जाते हो और वही शेष रह जाता है।
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कहने वाला खो जाता है, कहेगा क्या ? सिर्फ वही रह जाता है। उसकी महिमा, उसका अहर्निश नाद। देखने वाला खो जाता है, दृश्य ही रह जाता है। तुम तो मिट ही जाते हो, कौन उसकी खबर देगा ? कौन उसके संबंध में कुछ कहेगा ?
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इसलिए जो भी आदमी ने कहा है, वह सारी चर्चा असमर्थता की चर्चा है। असहाय अवस्था की, हेल्पलेसनेस की। जैसे कोई बहुत बड़ी घटना के करीब आ कर अवाक हो जाता है, वैसे ही परमात्मा के करीब आ कर आदमी अवाक हो जाता है। अवाक का अर्थ है, जहां ‘वाक’, वहां वाणी खो जाती है। जहां बोलना नहीं होता।
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हतप्रभ ! वाणी रुद्ध, सांस तक ठहर जाती है। उसके जानने के क्षण में तुम बिलकुल ही रुक जाते हो। न विचार की गति होती है, न शब्द की गति होती है, न श्वास की गति होती है। हृदय भी नहीं धड़कता। क्योंकि उतनी धड़कन भी चूकना हो जाएगी। उतना कंपन भी बिछुड़ना हो जाएगा। उस अवाक क्षण में नानक ने ये वचन कहे हैं। ये वचन किसी को समझाने को नहीं, अपनी व्यथा को प्रकट करने को कहे हैं।
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नानक कहते हैं, ‘अंत नहीं उसके गुणों का। न ही उसके कथन का अंत है।’
अंतु न सिफती कहणि न अंतु।
अंतु न करणै देणि न अंतु॥
अंतु न वेखणि सुणणि न अंतु।
अंतु न जापै किआ मनि मंतु॥
अंतु न जापै कीता आकारु।
अंतु न जापै पारावारु॥
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‘उसके गुणों का अंत नहीं है, न उसके कथन का ही अंत है। उसके कामों का अंत नहीं, और उसके दानों का भी अंत नहीं। न उसके दर्शन का अंत है, और न उसके श्रवण का अंत है। उसके मन के रहस्यों का भी अंत नहीं जाना जा सकता। उसके किए हुए सृष्टि-प्रसार का कोई अंत नहीं। उसके ओर-छोर का अंत नहीं। उसका अंत जानने के लिए कितने बिल्लाते हैं, तो भी उसका अंत नहीं पाया जा सकता। कोई भी उसका अंत नहीं जानता है।’
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इन वचनों में तीन बातें खयाल में ले लेने जैसी हैं। एक, जब तक तुम्हें लगता है कि तुमने परमात्मा को जाना तब तक तुम भ्रांति में हो। तब तक तुम किसी भूल में हो। क्योंकि जिसे तुम ने जान लिया, वह परमात्मा न होगा। जिसे तुमने नाप लिया, वह परमात्मा न होगा। जिसकी थाह तुम ने पा ली, वह परमात्मा न होगा। तुम किसी तालत्तलैया में डुबकी लगा रहे होओगे, तुम सागर के करीब नहीं पहुंचे।
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तुम किसी छोटी-मोटी घाटी में उतर गए होओगे। तुम ने उसके अंतहीन खड्ड को नहीं जाना, जहां गिरना शुरू होता है तो अंत नहीं आता। तुमने कोई छोटी-मोटी ऊंचाई पा ली होगी। गांव के पास का कोई टीला तुम चढ़ गए होगे। लेकिन तुमने उसका गौरीशंकर नहीं जाना जहां चढ़ने का कोई उपाय नहीं है। हिमालय के गौरीशंकर पर तो हम चढ़ जाते हैं–देर-अबेर, कठिनाई से, मुसीबत से। उसके गौरीशंकर पर हम कभी न चढ़ पाएंगे। यह असंभव है।
ओशो

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