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*कुछ नाहीं का नाम धर, भरम्या सब संसार ।*
*साच झूठ समझै नहीं, ना कुछ किया विचार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#बुद्ध पहली बार जब काशी आए ज्ञान के बाद, तो काशी के पहले ही गांव के बाहर ही सांझ हो गई और वे एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने को रुक गए। सूरज डूबता था। और तभी काशी के नरेश ने अपने सारथी को कहा कि मैं बहुत उद्विग्न हूं, मुझे गांव के बाहर ले चलो। स्वर्ण-रथ, डूबते हुए सूर्य की किरणों में चमकता हुआ, बुद्ध के पास आकर अचानक रुक गया। सम्राट ने अपने सारथी को कहा, रथ को रोक ! यह कौन भिखमंगा सम्राट सा इस वृक्ष के नीचे बैठा है ? रोक !
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सम्राट बुद्ध के पास आया। और उस सम्राट ने कहा, तुम्हारे पास कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता; लेकिन तुम्हारे पास जरूर कुछ होगा; तुम्हारी आंखें कहती हैं। यह डूबता हुआ सूर्य भी तुम्हारे सामने तेजपूर्ण नहीं मालूम हो रहा है। क्या है तुम्हारे पास? कौन सी संपदा है ? कौन सा छिपा हुआ खजाना है ? मेरे पास सब है जो गिना जा सके, देखा जा सके, पहचाना जा सके, और मैं आत्महत्या के विचार करता हूं।
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बुद्ध ने कहा है कि तुम्हारे पास जो है, कभी मेरे पास भी था। लेकिन तब मैं भी ऐसा ही विपन्न था। और जो आज मेरे पास है, तुम्हारे पास भी छिपा है। लेकिन जब तक तुम्हारी झूठी संपत्ति तुम्हें झूठी न दिखाई पड़े, तब तक सच्ची संपत्ति की खोज नहीं शुरू होती। जब तक तुम माने ही जाओगे कि तुम सम्राट हो, तब तक तुम उसे न खोज पाओगे, जिसे मैंने खोज लिया है। क्योंकि जो झूठे साम्राज्य को सच्चा मान कर जी रहा हो, वह सच्चे साम्राज्य से वंचित रह जाता है।
ओशो--ताओ उपनिषद, भाग--3, प्रवचन--41)
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