शनिवार, 20 जुलाई 2024

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*दादू माया आगे जीव सब, ठाढे रहे कर जोड़ ।*
*जिन सिरजे जल बूँद सौं, तासौं बैठे तोड़ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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कितना ही मिल जाए, और चाहिए। संख्या बढ़ती जाती है। दौड़ बढ़ती जाती है। और आदमी कभी उस जगह नहीं पहुंचता, जहां वह कह सके- आ गई मंजिल। मंजिल हमेशा मृग-मरीचिका बनी रहती है। दूर की दूर। यात्रा बहुत, पहुंचना कहीं भी नहीं। मगर दौड़-धाप बहुत होती है। और चूंकि सारी दुनिया यह दौड़-धाप कर रही है, इसलिए संघर्ष भी बहुत है। और यह भी मानने का मन नहीं होता कि इतने सारे लोग गलत होंगे।
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ध्यान के लिए तो कोई कभी बैठता है। तुमने खयाल किया एक शब्द पर - बुद्ध पर ? वह बुद्ध से बना है। जो लोग आंख बंद करके बैठ जाते हैं, लोग उनको कहते हैं देखा इस बुद्ध को। बुद्ध बनने चले हैं ! बुद्ध बनने चलो, बुद्ध बन कर रह जाते। और अपने को पा भी लोगे अगर... अहंकार बहुत तर्कनिष्ठ है, पूछता है- अपने को पा भी लोगे तो क्या खाक पा लिया !
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अरे तुम अपने को तो पाए ही हुए हो। पाना उसे है, जो दूर है। उसे क्या पाना जो तुम हो ही ? और बात तर्क की है। बुद्धि को समझ में आती है। जो मिला ही है, जो जन्म से ही है, जो स्वभाव ही है, उसे क्या खाक पाना ! नाहक समय गंवाना। उसे पाने चलो जो दूर है। चांद पर चलो। एवरेस्ट पर चढ़ो। एवरेस्ट पर चढ़ने का मजा क्या होगा ? एडमंड हिलेरी को एवरेस्ट की चोटी पर खड़े होकर क्या मजा मिला होगा ?
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मैंने तो कहानी सुनी है, भरोसे योग्य तो नहीं है, लेकिन मन करता है कि भरोसा कर लू-कि जब एवरेस्ट पर एडमंड हिलेरी, तेनसिंग और अपनी फौज को लेकर पहुंचे, तो वहां देखा कि एक साधु महाराज पहले से ही चिलम फूंक रहे हैं। अपनी खोपड़ी ठोंक ली एडमंड हिलेरी ने कि मर गए। हिलेरी के पहले कम से कम सौ यात्रीदल मर चुके थे, जिनका कोई पता भी न चला कि वे कहां गए, किन बर्फीले तूफानों में खो गए। यात्रा कठिन- थी।
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बामुश्किल किसी तरह पहुंच पाया यह आदमी और इधर ये महाराज चिलम पी रहे हैं। हद हो गई। पास बैठ कर गौर से देखा कि आदमी है कि कोई भूत-प्रेत है। क्योंकि न कोई साज-सामान है, जो एवरेस्ट पर पहुंचने के लिए जरूरी है, सिर्फ एक चमीटा गाड़ रखा है। चिलम हाथ में है, और धुन में ऐसे हैं कि आंख बंद है। सोचा कि कोई बहुत बड़ा महात्मा है, सिद्ध पुरुष है। शायद सिद्धि के बल से यहां पहुंच गया है। एडमंड हिलेरी उसके पैरों पर गिर पड़े।
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पैरों पर गिर पड़े तो महात्मा की जरा झपकी खुली। उन्होंने आंख खोली, जरा गौर से देखा - मामला क्या है ? हिलेरी की चमकती हुई घड़ी पर नजर पड़ी। कहाः बच्चा, घड़ी के क्या लेगा ? बहुत दिन से तलाश थी एक अच्छी घड़ी की। वक्त पर आ गया। एडमंड हिलेरी ने कहा महाराज, घड़ी यूं ही ले लें, मगर यह तो बताओ आप यहां पहुंचे कैसे ?
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उस साधु ने जो कहा... उसने कहा मैं कैसे पहुंचा ? यही बात तो मैं तुमसे पूछने वाला था कि तुम यहां कैसे पहुंचे ? मुझे तो लोग बुद्ध कहते थे, गांव का गंवार कहते थे। सो मैं तो यह सिद्ध करने पहुंचा था यहां कि लो एवरेस्ट पर चढ़ने वाला मैं पहला आदमी हूं। इतिहास बनाता हूं। न सही, इतिहास पढ़ा नहीं पढ़ा, मगर इतिहास बनाया। तुम कैसे पहुंचे ?
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एडमंड हिलेरी ने कहा कि तुमने तो मेरे राज की बात कह दी। यही तो भाव अपना भी है- इतिहास बनाना- सबसे पहला आदमी। भैया, तुम किसी और को मत बताना कि तुम पहले से ही चमीटा गाड़े दम मार रहे थे। उसने कहाः तुम फिकर मत करो। ऐसे कई आए और गए। हम तो यहीं चमीटा गाड़े और दम मारते रहते हैं। और किसको याद रहता है इस दम के मारे कि कौन आया, कौन गया। अब घड़ी दे दो और रास्ता लगो।
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एवरेस्ट पर चढ़ने का क्या रस हो सकता है ? एवरेस्ट पर चढ़ने की सारी कठिनाई आदमी उठा सकता है, लेकिन अपने भीतर जाने की जरा सी कठिनाई उठाने को तैयार नहीं। चांद पर जा सकता है, जिंदगी को हाथ में लेकर। अभी-अभी जो चांद पर जा रहे थे सात लोग, बीच में ही समाप्त हो गए। लेकिन अपने भीतर जाने की बात अहंकार को रुचती नहीं। तुमने पूछा है कि भारत ने ऊंचाइयां छुई हैं ध्यान की। फिर क्या हुआ ? फिर कौन सी दुर्घटना घटी ? फिर भारत के मानस से ध्यान के प्रति क्यों अरुचि हो गई ?
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उन शिखरों को छू लेने के कारण ही। जब इतने लोगों ने शिखर छू लिए, तो भारत के अहंकार को अब उस दिशा में जाने के लिए कोई आकांक्षा न रही। इसलिए भारत जिस बुरी तरह भौतिकवादी हो गया, आज जमीन पर कोई भी देश इतना भौतिकवादी नहीं है। यू हम लाख बातें अध्यात्म की करते हों, लेकिन हमारा सारा अध्यात्म सिर्फ बकवास है। सामाशेख की बकवास। यथार्थ, हम निपट भौतिकवादी है।
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पांच वर्ष पश्चिम के सारे देशों में घूमने के बाद अब मैं यह बात अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि इतना भौतिकवादी समाज दुनिया में और कहीं भी नहीं है। जिस जोर से तुम पैसे को पकड़ते हो, उतने जोर से पैसे को कोई भी नहीं पकड़ता। लोग पैसे को खर्च करते हैं, पकड़ते नहीं। लोग पैसे को जीते हैं, जकड़ते नहीं। लोग पैसे का उपयोग करते हैं, तुम तिजोड़ियों में बंद करते हो। पैसा तिजोड़ियों में बंद है या तिजोड़ी खाली है, इससे क्या फर्क पड़ता है ? तुम कभी उसका उपयोग तो करोगे नहीं।
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मैंने सुना है, एक आदमी के पास दो सोने की ईंटें थीं। उसने बगीचे में उनको गाड़ रखा था। गाड़ तो रखा था, लेकिन जान वहीं लगी रहती थी। दिन में दो-चार बार वहां चक्कर लगा आता था। रात भी नींद नहीं आती थी। पत्नी बहुत बार कहे कि मामला क्या है जी ? जब देखो तब चले ! और उसी कोने में मरते हो। वहीं तुम्हारी कब्र खुदवा दूंगी। और क्या देखने जाते हो ? मुझको तो वहां कुछ दिखाई पड़ता नहीं।
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अब वह बोले भी तो क्या बोले ! वह तो गड़ी हुई ईंटें देखने जाता था- किसी ने उखाड़ीं तो नहीं, कोई गड़बड़ तो नहीं, कोई आशंका तो नहीं। आखिर पत्नियां भी कोई पत्थर तो नहीं हैं, कब तक यह खेल रोज देखती ? एक दिन भैया छुट्टी पर गए थे। क्या खाक छुट्टी पर गए होंगे ! खयाल तो ईंटों का ही बना था। पत्नी ने मौका देख कर खुदाई करवाई- दो सोने की ईंटें।
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उसने कहा: अरे! राज हाथ में आ गया। ईंटें तो उसने निकाल लीं। दो साधारण ईंटें उनकी जगह रख कर गड्डा पुरवा दिया। ठीक-ठीक, जैसा था वैसा ही स्थान बनवा दिया। पतिदेव लौट भी आए। अब भी दिन में चार चक्कर लगना, रात में कितने चक्कर लगना - वह चलता रहा। पर जब भी वे जाएं तो पत्नी हंसे। उन्हें बड़ी हैरानी हो। क्योंकि पहले तो वह बड़ी नाराज होती थी। गालियां बकती थी, उलटी-सीधी बातें कहती थी- तुम्हारी खोपड़ी तो दुरुस्त है ? तुम काहे के लिए वहां जाते हो ? उस कोने में तुम्हारे बाप-दादे गड़े हैं ?
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अब बिलकुल चुप रहती है और सिर्फ मुस्कुराती है ! हंसी को दबाती है। कुछ राज समझ में आता नहीं। यह कुछ महीनों चला। एक दिन शक हुआ कि मामला कुछ ज्यादा ही है। क्योंकि पत्नी अब बात ही नहीं करती उस कोने की। छह दफे जाओ, बारह दफे जाओ, रात भर वहीं बैठे रहो, वह मजे से सोती है। सो उसने खोद कर देखा। ईंटें तो मिलीं, मगर वे सोने की न थीं। तब राज समझ में आया। लौट कर अंदर आया और पत्नी से कहा क्यों, ईंटें कहां हैं ?
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पत्नी ने कहाः तुम्हें क्या फर्क पड़ता है ? खर्च तो करनी नहीं हैं। गाड़ कर रखनी हैं। सो सोने की हैं कि मिट्टी की हैं- क्या भेद ? तुम्हें तो चक्कर लगाने हैं, सो लगाओ। रही सोने की ईंटों की बात, सो खर्चा हो चुकीं। स्त्रियां खर्चा करना जानती हैं। पतिदेव को देखो तो लगता है कि भीख मांगते हैं या क्या करते हैं। पत्नी को देखो तो राजरानी बनी हैं। दोनों को साथ देखो तो साफ समझ में आ जाता है कि इनके कारण ये भिखमंगे हो रहे हैं, इनके कारण ये राजरानी बनी हैं। यह समझौता है। ऐसे दोनों चक्के साथ-साथ चलते हैं। बैलगाड़ी चल रही है।
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लेकिन उस आदमी को बड़ा बोध हुआ। यह सोच कर कि वह महीनों से मिट्टी की ईंटों के चक्कर काट रहा था। बात सिर्फ मान्यता की थी। समझता था सोने की हैं। उस रात चक्कर काटना चाहा, लेकिन अब काटने का कोई मतलब न था। इस देश में लोग पैसे को दबा कर रखते हैं और सोचते हैं कि अध्यात्मवादी हैं, क्योंकि खर्चा नहीं करते।
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पश्चिम में लोग जो कमाते हैं, उसे खर्च करते हैं। खर्च करते हैं तो दिखाई पड़ता है। दिखाई पड़ता है तो भारतीय ईर्ष्या जगती है कि दुष्ट सभी खर्च किए दे रहे हैं, निरे भौतिकवादी हैं, नरक में सड़ेंगे। और तुम ? तुम अपनी भारी तिजोड़ी लिए एकदम स्वर्ग में चले जाओगे ? तुम यहां भी सड़ रहे हो, वहां भी सड़ोगे। वे कम से कम यहां तो मजा ले रहे हैं। आगे की आगे देखी जाएगी। अभी इतनी जल्दी भी क्या है !

1 टिप्पणी:

  1. उस 'मन' को वश में करने के लिए , जो बन्दर के समान चंचल है , जिसको किसीने कामिनी -कांचन और नाम-यश पाने की मदिरा पिला दी थी इसलिए वह और चंचल हो गया था। ईर्ष्या का बिच्छू डंक मारने से और बेचैन हो था , इतना ही नहीं उस पर अहंकार रूपी एक भूत सवार हो गया था - वही भूत जिसका उल्लेख यहाँ आचार्य रजनीश कर रहे हैं - सबसे पहले एवरेस्ट पर चढ़ने वाला एडमण्ड हिलेरी था या चिलम पीने वाला बाबा ? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि ......
    "दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद् ब्रह्ममयं जगत्":
    देहबुद्धया तु दासोऽहं, जीवबुद्धया त्वदंशकः।
    आत्मबुद्धया त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः।।
    ज्ञानमय दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय देखना चाहिए/ देहबुद्धि से तो मैं आपका दास हूँ, जीवबुद्धि से मैं आपका अंश ही हूँ, और आत्मबुद्धि से में वही हूँ जो आप हैं, यही मेरी निश्चित मति है॥ (चतुर्थ पाद में पाठभेद हैः ‘इति वेदान्तडिण्डिमः’ – अनुवादक।)

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