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*दादू जग दिखलावै बावरी, षोडश करै श्रृंगार ।*
*तहँ न सँवारे आपको, जहँ भीतर भरतार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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प्रश्नः इस देश में ध्यान को गौरीशंकर की ऊंचाई मिली। शिव, पतंजलि, महावीर, बुद्ध, गोरख जैसी अप्रतिम प्रतिभाएं साकार हुईं। फिर भी किस कारण से ध्यान के प्रति आकर्षण कम होता गया ?
मैं अभी-अभी मेंहदी हसन की एक गजल सुन रहा था। कोपलें फिर फूट आई शानव पर, करुना उसे वो न समझा है, न समझेगा, मगर कहना उसे कोपलें फिर फूट आई शानव पर। संन्यास का यह प्रवाहः कोंपलें फिर शाख पर फूट आई।
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इस देश में ध्यान कभी भी मरा नहीं। कभी भूमि के ऊपर और कभी भूमि के भीतर, मगर उसकी गंगा बहती रही सतत, सनातन। आज भी बहती है, कल भी बहेगी। और यही एक आशा है मनुष्य की। क्योंकि जिस दिन ध्यान मर जाएगा, उस दिन आदमी भी मर जाएगा। ध्यान में ही आदमी के प्राण हैं। चाहे तुम्हें पता हो न पता हो, चाहे तुम जानो या न जानो, ध्यान तुम्हारी अंतरात्मा है। तुम्हारी श्वासों के भीतर जो छिपा है और तुम्हारी धड़कनों के भीतर जो छिपा है, तुम जो हो, वह ध्यान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। लेकिन प्रश्न महत्वपूर्ण है।
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इस देश ने जगत को अगर कुछ दिया है, इसका अगर कोई अनुदान है, तो वह सिर्फ ध्यान है। फिर चाहे पतंजलि में, चाहे महावीर में, चाहे बुद्ध में, चाहे कबीर में, चाहे नानक में- नाम बदलते रहे होंगे, लेकिन दान नहीं बदला है। अलग-अलग नामों से, अलग-अलग लोगों से, अलग-अलग आवाजों में एक ही पुकार, एक ही अजान हम जगत को देते रहे हैं, और वह ध्यान की है। इसलिए स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि गौरीशंकर की ऊंचाइयों को छू लेने के बाद, गौतम बुद्ध की ऊंचाइयों को पहचान लेने के बाद, फिर ध्यान के प्रति इतनी अरुचि भारत के जनमानस में क्यों फैल गई ?
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देखने में विरोधाभास मालूम होता है। लेकिन मनुष्य का मनोविज्ञान ऐसा है। जो चीज पा ली जाती है, साधारण आदमी के मन में उसकी चुनौती समाप्त हो जाती है। अहंकार को चुनौती है उसमें, जो पाया नहीं जाता, जिसे पाना बड़ा मुश्किल है। समझना, थोड़ा बारीक है। हमने देखे महावीर, हमने देखे बुद्ध, हमने देखे पार्श्वनाथ, कबीर और नानक और फरीद और हजारों फकीर। जनमानस में एक बात अचेतन में प्रविष्ट हो गई कि यह ध्यान तो कुछ ऐसी चीज है, कोई भी पा लेता है।
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इसे पा लेना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। यह फरीद ने पा ली, यह कबीर जुलाहे ने पा ली, यह रैदास चमार ने पा ली। अहंकार को चुनौती मिट गई। धन मुश्किल मालूम पड़ता है, ध्यान आसान मालूम पड़ने लगा। लोग को के पीछे दौड़ने लगे, लोग पद के पीछे दौड़ने लगे, लोग प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ने लगे। धन मुश्किल है, उसमें चुनौती है, उसमें अहंकार को भरने की क्षमता है। जो सरल है, जो सहज है, जो सुगम है, अहंकार के लिए उसमें कोई आकर्षण नहीं रह जाता।
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अनेक लोगों के ध्यान के जगमगाते ज्योतिर्मय व्यक्तित्वों ने आम जनता के मन से ध्यान की चुनौती छीन ली। और यूं लगा कि आज नहीं कल पा लेंगे, और कल नहीं तो अगले जन्म में पा लेंगे, ऐसी कोई जल्दी नहीं है। जीवन के क्षणभंगुर सुख पता नहीं कल मिलें न मिलें; जवानी आज है, कल भी होगी, इसका भरोसा नहीं। भरोसा तो इसी का है कि कल नहीं होगी। ध्यान कल भी कर लोगे तो चलेगा। यह जो जवानी है, ये जो जवानी की उठती हुई तरंगें हैं- इन्हें तो आज पूरा कर लो।
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ध्यान तो उनको भी मिल जाता है जिनके पास कुछ भी नहीं है। नग्न महावीर के पास हमने ध्यान की ज्योति देखी। जूते सीते हुए रैदास के पास हमने ध्यान की आभा देखी। लोगों के मन से ध्यान का आकर्षण जाता रहा। ऐसा लगा कि यह तो कुछ बात ऐसी है कि कभी भी पा लेंगे। लेकिन धन, पद, प्रतिष्ठा- इस जगत की जो अनेक अनेक महत्वाकांक्षा की दौड़ें हैं- ये इतनी आसान नहीं हैं। बड़ी प्रतियोगिता है, बड़ी गलाघोंट प्रतियोगिता है, इंच इंच लड़ना है, तब कहीं कोई एक व्यक्ति जाकर करोड़ों व्यक्तियों में देश का राष्ट्रपति बन सकेगा।
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अहंकार का मजा यही है- कि मैं सबके ऊपर उठ जाऊं। और ध्यान की मुश्किल यह है कि ध्यान कहता है- जो मजा सबके पीछे बैठ रहने में है, वह सब के ऊपर उठ जाने में नहीं। वहां कोई प्रतियोगिता नहीं है, वहां कोई झगड़ा नहीं है, वहां कोई तुम्हें धक्का देकर ध्यान में तुमसे आगे नहीं निकल सकता, क्योंकि बात बाहर की नहीं है, बात भीतर की है। वहां तुम बिलकुल अकेले हो। न कोई प्रतियोगिता है, न कोई संघर्ष है, न कोई छीना-झपटी है।
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अहंकार को कोई मजा नहीं। अहंकार को मृत्यु का डर है। अगर ध्यान में फूल लगे तो अहंकार मरा। अगर ध्यान की ज्योति जली तो अहंकार का दीया बुझा। ये दोनों चीजें एक साथ घटित नहीं हो सकतीं। इनका कोई सह-अस्तित्व नहीं है। या अहंकार या ध्यान। और ध्यान तुम्हारे भीतर है और अहंकार का विस्तार यह सारे जगत में है। अहंकार के बड़े प्रलोभन हैं। ध्यान का प्रलोभन भी क्या ? अहंकार बड़े आश्वासन देता है, पूरे कभी नहीं करता, कर सकता नहीं। अहंकार बिलकुल नपुंसक है।
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