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*प्रेम लहर की पालकी, आतम बैसे आइ ।*
*दादू खेलै पीव सौं, यहु सुख कह्या न जाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#घटना रवींद्रनाथ के जीवन में घटी। उन्होंने गीतांजलि लिखी और फिर गीतांजलि का अंग्रजी में अनुवाद किया। अंग्रेजी पराई भाषा, तो उन्होंने सोचाः किसी से पूछ लें। तो सी. एफ. एंड्रूज से उन्होंने कहा कि आप जरा इसको देख लें। मेरा अनुवाद ठीक है या नहीं।
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सी. एफ. एंड्रूज भाषा के ज्ञानी थे। उन्होंने दो-चार जगह शब्द बदले। उन्होंने कहा कि ये शब्द व्याकरण की दृष्टि से ठीक नहीं हैं, चार जगह उन्होंने शब्द बदल दिए और कहा, अब सब ठीक है।
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फिर रवीन्द्रनाथ गए और लंदन में उन्होंने कवियों के एक समारोह में गीतांजलि का पाठ किया। वे बड़े हैरान हुए। अंग्रजी का एक महाकवि यीट्स खड़ा हो गया। और उसने कहा, ‘और सब तो ठीक है, तीन-चार जगह ऐसा लगता है, किसी और ने शब्द रखे हैं। और सब जगह तो धारा बहती चली जाती है, मगर तीन-चार जगह ऐसा लगता हैः सब छिन्नभिन्न हो गया।’
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रवींद्रनाथ चौंके। तीन-चार जगह ! उन्होंने कहाः कौन से ? उसने दो-तीन उदाहारण बताए। वह वे ही शब्द थे, जो सी. एफ. एंड्रूज ने लगवा दिए थे। रवींद्रनाथ ने कहा, ‘मुझे क्षमा क रें। भूल मेरी है। और सी.एफ. एंड्रूज ने गलत नहीं किया।’
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यीट्स ने भी कहा कि ‘तुम्हारे क्या शब्द थे, जो तुमने पहले रखे थे ?’ रवीन्द्रनाथ ने कहा … उसने कहा कि वह भाषा की दृष्टि से गलत, लेकिन काव्य की दृष्टि से सही। व्याकरण ठीक नहीं है उनका, लेकिन उनमें लय है, तारतम्य है; आगे पीछे के शब्द में संगीत छिन्न-भिन्न नहीं होता। तुम पुराने ही शब्द रखो। भाषा को जाने दो भाड़ में, काव्य को बचाओ।’
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और रवींद्रनाथ ने अपने पुराने ही शब्द रखे। भाषा की भूल रही, लेकिन काव्य की भूल बच गई। तो एक तो ऐसा शब्द है, जो तुम्हारे भीतर से आता है। और एक ऐसा शब्द है, जो तुम बाहर-बाहर से इंतजाम कर लेते हो। बाहर-बाहर से जो इंतजाम किया, उससे सावधान रहना। वह असार है। जो भीतर से आए, वह बड़ा मूल्यवान है।
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जो प्रेम की घड़ी में उठता है, वह बड़ा मूल्यवान है। जो शांत-शून्य में उठता है, वह बड़ा मूल्यवान है। प्रेम में उठे शब्द को सम्हालना। शून्य में उठे शब्द को सम्हालना। करुणा में उठे शब्द को सम्हालना। क्रोध में उठे शब्द को फेंक देना; उसे सम्हालना मत; वह जहर है।
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गुफ्तगू बंद न हो बात से बात चले
सुबह तक सामे-मुलाकात चले
हमपे हंसती हुई ये तारों भरी रात चले।
जहां प्रेम के शब्द उठते हों, जहां हृदय के शब्द उठते हों, जहां अंतर्तम बोलता हो, उसे तो बोलने देना। ‘गुफ्तगू बंद न हो।’ प्रेम में चलती हुई बात बंद न हो। और जो साम को शुरू हुई थी मुलाकात, वह अगर रातभर भी चले, तो हर्ज नहीं।
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सुबह तक सामे-मुलाकात चले
हमपे हंसती हुई ये तारों भरी रात चले
सत्संग हो–तो शब्द सार्थक हैं। प्रेम हो–तो शब्द सार्थक हैं। संगीत को लाते हों भीतर के, तो शब्द सार्थक हैं। भीतर की थोड़ी सी धुन भी आ जाती हो बसी-बसी, तो शब्द सार्थक हैं। ‘हों, जो अल्फाज के हाथों में हैं संगे-दुश्नाम।’ माना कि शब्द के हाथों में गालियों के पत्थर भी हैं।
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और यह भी हमें पता है कि शब्दों में बड़ा जहर भी हो सकता है। ‘तीखी नजरें हों, तुर्श अबरुए-खमदार रहे।’ और यह भी हम जानते हैं कि शब्द बड़े नाराज हो सकते हैं। और शब्दों में बड़ी तीखी नजरें हो सकती हैं। शब्दों में बड़ी चोट हो सकती है। यह सब हमें मालूम है।
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‘बने पड़े जैसे भी दिल सीनों में बेदार रहे।’ लेकिन कुछ भी हो, दिल को जगाए रखना है। दिल को जाग्रत रखना है। शब्दों का उपयोग करना है। शब्दों में खतरे हैं, खाइयां हैं, खड्डे हैं, लेकिन उन्हीं खाइयों खड्डों से जाती हुई पतली सी राह भी है, बाट भी है। ‘बेबसी हर्फ की जंजीर-ब-पा कर न सके।’ ध्यान रखना शब्दों की जंजीर पैरों को बांध न सके–यह ख्याल रहे।
ओशो
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