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*साहिब मुख बोलै नहीं, सेवक फिरै उदास ।*
*यहु बेदन जिय में रहै, दुखिया दादू दास ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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जीवित मंदिर खोजो। पत्थर की दीवालों से नहीं होगा, कहीं जहां परमात्मा अभी भी धड़क रहा हो, किन्हीं आंखों में झांको, जिन आंखों में परमात्मा झांका हो। किन्हीं आंखों में झांको, जो आंखें परमात्मा में झांक चुकी हों। किसी ऐसे के संग-साथ हो लो, सौभाग्य के किसी क्षण में उसका मतवालापन तुम्हें भी पकड़ लेगा।
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सौभाग्य के किसी क्षण में एक झंझावात की तरह तुम्हारे चारों तरफ ऊर्जा का प्रवाह होगा। तुम एक अंधड़ में फंस जाओगे। एक अंधड़ जो तुम्हें अनंत की यात्रा पर ले जा सकता है। तब दर्शन की इच्छा जगती है। गुरु की आंख में झांक कर परमात्मा में झांकने की अभीप्सा पैदा होती है। फिर चैन नहीं। फिर बावरापन है।
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बिन दरसन भई बावरी,…
इसका अर्थ समझ लेना। इसका अर्थ यह है कि प्राथमिक घटना घट चुकी है। एक बार झलक मिल चुकी है। अब दर्शन की इच्छा है। थोड़ा सा स्वाद लग गया है। ओंठों ने थोड़ा सा रस पी लिया है, अब और पीने की इच्छा है। अब बिना पीए नहीं रहा जाता।
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मेरा जौके-दीद आजमाके तो देखें
जरा रुख से पर्दा उठाके तो देखें
तब भक्त कहता है, जरा मेरी प्यास को आजमाओ। जरा मेरी अभीप्सा को परखो। यह जो मेरे प्राणों में जल रही है उत्कंठा, जरा इसकी तरफ देखो। परमात्मा को चुनौती देना शुरू करता है भक्त। फुसलाता है, मनाता है, झगड़ता है, पुकारता है। कभी नाराज होकर चुप हो जाता है, नहीं पुकारता। कभी रोता है, कभी पीठ फेर लेता है। ये सारी भक्ति की भाव-भंगिमाएं हैं। जैसे प्रेमी झगड़ते हैं, भक्त भगवान से झगड़ता है।
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मैं न कहता था, उठाओ तुम न आरिस से नकाब
देख लो वे सुबह के फीके उजाले पड़ गए
मैं न कहता था, उठाओ तुम न आरिस से नकाब
देख लो वे सुबह के फीके उजाले पड़ गए
कई तरह से फुसलाता है, चुनौती देता है कि तुम्हारी झलक अगर मिल जाए तो चांद-तारे फीके पड़ जाएं। तुम्हारी झलक अगर मिल जाए तो सूरज अंधेरा हो जाए। तुम जरा पर्दा उठाओ।
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मुझको यह आरजू कि उठाएं नकाब खुद
उनको यह इंतजार, तकाजा करे कोई
ऐसा दोनों के बीच, सीमा और असीम के बीच, क्षुद्र और विराट के बीच, बूंद और सागर के बीच बहुत गुफ्तगू चलती है, बहुत वार्ता होती है, बहुत चर्चा होती है। भक्त रोता है। और करे भी क्या ? आंसू ही प्रार्थना बन सकते हैं। और भक्त के पास है भी क्या ?
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आज उस बज्म में तूफान उठा कर उठे
यां तलक रोए कि उनको भी रुला कर उठे
और जब तक भक्त को अनुभव नहीं होने लगता कि मेरे आंसुओं के उत्तर आने लगे; कि इधर मैं रो रहा हूं, इधर अस्तित्व रोने लगा, तब तक भक्त चैन नहीं लेता।
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बिन दरसन भई बावरी,…
ऐसे पागल तुम हो जाओ तो परमात्मा मिलता है। यह कीमत चुकानी ही पड़ती है। मुफ्त यहां कुछ भी नहीं है। अक्सर लोग संसार की क्षुद्र चीजों के लिए बड़ी कीमत चुकाने को तैयार हैं और परमात्मा के लिए कोई कीमत चुकाने को तैयार नहीं हैं।
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मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, परमात्मा कहां है ? हम देखना चाहते हैं। मैं उनसे पूछता हूं, चुकाने की क्या तैयारी है ? चुकाने के संबंध में वे कहते हैं, हमने सोचा ही नहीं; हमने विचार ही नहीं किया। हम तो परमात्मा को देखना चाहते हैं, है भी ? मगर मूल्य क्या चुकाओगे ? परम प्यारे को खोजने चले हो, जो भी तुम्हारे पास है, सब दे देना होगा। सर्वहारा हो जाओगे तो ही उसे पाओगे।
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ऐसी घड़ी जरूर आती है जब तुम्हारा रुदन तुम्हारे रोएं-रोएं से होता है तो उस तरफ भी आंसू टपकते हैं। वृक्ष रोते हैं और चांद-तारे रोते हैं। इस जगत में तुम्हारे भीतर उठे प्रश्नों के उत्तर छिपे हैं। यह जगत प्रतीक्षा कर रहा है कि तुम पुकारो तो उत्तर आए। यह जगत तुम्हारे प्रति उपेक्षा से भरा हुआ नहीं है।
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यही परमात्मा मानने का अर्थ है। परमात्मा मानने का यह अर्थ नहीं होता कि ऊपर कोई एक वृद्ध पुरुष बैठा है, जो सारे जगत को चला रहा है। वे तो बच्चों की कहानियां हैं। आस्तिक भी उनमें उलझे हैं, नास्तिक भी उनमें उलझे हैं। बच्चों की कहानियां हैं।
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परमात्मा के मानने का सार-अर्थ क्या होता है ? इतना ही अर्थ होता है कि यह अस्तित्व हमारे प्रति उपेक्षा से भरा हुआ नहीं है। यह अस्तित्व हममें रस रखता है; इतना ही अर्थ है। यह अस्तित्व हममें उत्सुक है। यह हमारे विकास में उत्सुक है। यह हमारे चरम उत्कर्ष में उत्सुक है। यह हमें जीवन की परम आनंद की यात्रा पर ले जाना चाहता है।
ओशो
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