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*दादू साँई सावधान, हम ही भये अचेत ।*
*प्राणी राख न जानहि, तातैं निष्फल खेत ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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❤️ *‘शून्य स्वभाव’–‘दि नेचर ऑफ एंप्टीनेस।’* ❤️
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इस पुस्तक में केवल कुछ ही पेज हैं, लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण। एक-एक वाक्य में शास्त्र समाहित हैं, लेकिन समझना बहुत मुश्किल है। स्वभावतः तुम पूछोगे कि मैं उन्हें कैसे समझ सका। जैसे मार्टिन बूबर का जन्म हसीद परिवार में हुआ था, वैसे ही मैं भी इस दीवाने आदमी की परंपरा में पैदा हुआ। उनका नाम है, तारण तरण। यह उनका यथार्थ नाम नहीं है, लेकिन किसी को भी उनका असली नाम ज्ञात नहीं है। ‘तारण तरण’ का सीधा अर्थ है ‘तारणहार।’ और यही उनका नाम हो गया।
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मैंने अपने बचपन से ही उन्हें अपनी श्वास-श्वास में बसा लिया, उनके गीतों को सुनता, और जानने को उत्सुक होता कि उनका अर्थ क्या है। लेकिन एक बच्चे को अर्थ की कोई फिकर नहीं होती। गीत सुंदर थे, लय सुंदर थी, नृत्य सुंदर था, और यह काफी है। यदि कोई प्रौढ़ हो गया है तो ही उसे ऐसे लोगों को समझने की जरूरत पड़ती है; अन्यथा, अगर वे लोग जो बचपन से ही ऐसे वातावरण से घिरे रहे हैं, तो उन्हें समझने की जरूरत नहीं पड़ती है और फिर भी अपने चित्त की गहराई में वे समझ लेंगे।
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मैं तारण तरण को समझता हूं–बौद्धिक रूप से नहीं, बिल्क अस्तित्वगत रूप से। और साथ ही साथ मैं यह भी जानता हूं कि वे किस बारे में बात कर रहे हैं। और भले ही अगर उनके अनुयायियों के परिवार में मेरा जन्म न भी हुआ होता तो भी मैं उन्हें समझ लेता। मैंने कितनी ही विभिन्न परंपराओं को समझा है–और ऐसा नहीं है कि उन सभी में मेरा जन्म हुआ है।
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मैंने इतने सारे दीवानों को समझा है कि कोई भी सिर्फ उन्हें समझने के प्रयास में ही पागल हो सकता है ! लेकिन मेरी ओर देखो : उन्होंने मुझे बिलकुल प्रभावित नहीं किया। वे कहीं न कहीं मुझसे निचले तल पर ठहर गए हैं। मैं उन सभी के पार चला गया हूं।
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फिर भी मैं तारण तरण को समझा होता। हो सकता है मैं उनके संपर्क में न आ पाया होता, यह असंभव सा है, क्योंकि उनके अनुयायी बहुत कम हैं, बस कुछ हजार, और केवल मध्य भारत में ही पाए जाते हैं। और अल्पसंख्यक होने के कारण वे इतना डरते हैं कि वे अपने आप को तारण तरण का अनुयायी भी नहीं बताते, वे अपने को जैन कहते हैं। वे लोग गोपनीय ढंग से अपने संप्रदाय के संस्थापक तारण तरण पर श्रद्धा रखते हैं, महावीर पर नहीं, जैसा कि अन्य जैन लोग महावीर पर रखते हैं।
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जैन धर्म खुद ही एक छोटा सा धर्म है; इसको मानने वाले केवल तीस लाख लोग हैं। जैन धर्म के दो मुख्य संप्रदाय हैं : दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर मानते हैं कि महावीर नग्न जीए, और नग्न ही रहे–‘दिगंबर’ शब्द का अर्थ होता है : ‘आकाश को ही जिसने अपना वस्त्र बना लिया’; प्रतीकात्मक रूप से इसका अर्थ है ‘नग्न।’ यह सबसे पुराना संप्रदाय है।
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‘श्वेतांबर’ शब्द का अर्थ होता है : ‘सफेद वस्त्र पहनने वाले,’ और इस संप्रदाय के अनुयायियों का मानना है कि हालांकि महावीर नग्न थे पर देवताओं द्वारा उन्हें अदृश्य सफेद वस्त्रों से ढंक दिया था जो किसी को दिखाई नहीं पड़ते थे। हिंदुओं को संतुष्ट करने के लिए बस यह एक समझौता है। तारण तरण के अनुयायी दिगंबर संप्रदाय के हैं, और वे जैनों में सबसे अधिक क्रांतिकारी लोग हैं। वे महावीर की मूर्तियों की पूजा तक भी नहीं करते हैं; उनके मंदिर खाली हैं, वे भीतरी शून्यता के प्रतीक हैं।
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संयोगवश अगर मेरा जन्म ऐसे परिवार में नहीं होता जो कि तारण तरण में श्रद्वा रखता है तो मेरे लिए तारण तरण को जानना करीब-करीब असंभव होता। लेकिन मैं परमात्मा को धन्यवाद देता हूं कि ऐसे परिवार में जन्म लेने पर जो परेशानी मुझे हुई वह मूल्यवान सिद्ध हुई। सिर्फ इस एक बात के लिए कि उन्होंने मुझे एक अदभुत रहस्यदर्शी से परिचित कराया, उन सभी परेशानियों को भुलाया जा सकता है।
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उनकी पुस्तक ‘शून्य स्वभाव’ में वे किसी दीवाने की तरह एक ही बात को बार-बार कहते हैं। तुम मुझे जानते हो, समझ सकते हो कि पच्चीस वर्षों से मैं भी बार-बार वही बात कहता आ रहा हूं। मैंने बार-बार कहा है: जागो ! उन्होंने भी ‘शून्य स्वभाव’ यही कहा है।
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तारण तरण की अन्य पुस्तक, *‘सिद्धि स्वभाव’–‘दि नेचर ऑफ अल्टीमेट रियलाइजेशन,’* बहुत सुंदर शीर्षक है। वे एक ही बात को बार-बार कहते हैं : शून्य हो जाओ ! लेकिन वे बेचारे क्या कर सकते हैं ? और कोई भी इसके अलावा कुछ नहीं कह सकता। ‘‘जागो, होश में आओ…’’
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अंग्रेजी शब्द ‘बीवेयर’ दो शब्दों से बना है : बी वेयर–इसलिए ‘बीवेयर’ ‘सावधान’ शब्द से भयभीत मत होना, बस अवेयर हो जाओ, होशपूर्ण हो जाओ, और जिस क्षण तुम होशपूर्ण होते हो, तुम अपने घर आ गए।
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तारण तरण की अनेक पुस्तकें हैं, लेकिन इन दोनों पुस्तकों में उनका सारा संदेश समाहित है। एक बताती है कि तुम कौन हो–शुद्ध शून्यता; दूसरी, कि तुम उस तक कैसे पहुंच सकते हो; जागरूक होकर। लेकिन वे बहुत छोटी पुस्तकें हैं, मात्र कुछ ही पन्नों की...
― ओशो
सुप्रभात
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