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*दादू जब लग मूल न सींचिये, तब लग हरा न होइ ।*
*सेवा निष्फल सब गई, फिर पछताना सोइ ॥*
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*साभार ~ @Krishna Krishna*
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यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती
यह बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती
यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है !
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लेकिन दौड़ रहे हैं लोग...। कितनी आपाधापी है इस दुनिया को पा लेने के लिए ! और इस पाने में सिर्फ एक बात घटती है-खुद लुट जाते हैं। कंकड़ -पत्थर इकट्ठे हो जाते हैं,आत्मा बिक जाती है। खुद को बरबाद कर लेते हैं।
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कुछ चीजें छोड़ जाते हैं। कुछ मकान बना जाते हैं। कुछ पत्थरों पर नाम खोद जाते हैं। इससे जो सावधान होता है, वही व्यक्ति धर्म के जगत में प्रवेश करता है। वह वस्तुस्थिति के प्रति जो जागरूक होता है, वही धार्मिक है।
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धर्म का मंदिर - मस्जिदों और गिरजों से कुछ लेना नहीं; गीता-कुरान और बाइबिल से कुछ लेना नहीं। धर्म का संबंध है इस बौध सें-यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ! तीर की तरह यह बात चुभ जाए भीतर, तो जीवन में एक झरना फूटता है।
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तुम्हारे ही प्राणों में, तुम्हारे ही अंतःकरण में एक संगीत उगता है- तुम्हारे भीतर ही एक ज्योति जलनी शुरू होती है- जो शायद जल ही रही थी, लेकिन तुम्हारी आखें चूंकि बाहर भटक रही थी, चूंकि तुम दुनिया की तलाश पर निकले थे और तुमने कभी पीछे लौटकर अपने भीतर नहीं देखा था, इसलिए पता न चला था। इसलिए प्रत्यभिज्ञा न हो सकी थी।
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जिस दिन दिखाई पड़ जाता है कि यह पूरी दुनिया भी मिल जाए तो कुछ मिलेगा नहीं, उस दिन आदमी आंख बंद करता है और अपने भीतर देखता है। तब अपना स्वरूप दिखाई पड़ता है -मैं कौन हूं ! और जिसने जान लिया मैं कौन हूं, उसने सब जान लिया। जो भी जानने योग्य है सब जान लिया। जो भी पाने योग्य है सब पा लिया।
ओशो
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