रविवार, 29 सितंबर 2024

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*जाके हिरदै जैसी होइगी, सो तैसी ले जाइ ।*
*दादू तू निर्दोष रह, नाम निरंतर गाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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जापान में एक छोटा सा गाँव था। उस गाँव में आया था एक संन्यासी, एक युवा संन्यासी। बहुत सुंदर, बहुत स्वस्थ, बहुत महिमाशाली। उसकी प्रतिभा का प्रकाश शीघ्र ही दूर - दूर तक फैल गया। उसकी सुगंध बहुत से लोगों को मन को लुभा ली। गाँव का वह प्यारा हो गया। वर्ष बीते, दो वर्ष बीते, वह उस गाँव का प्राण बन गया। उसकी पूजा ही पूजा थी।
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लेकिन एक दिन सब उलट हो गया। सारा गाँव उसके प्रति निंदा से भर गया। सुबह ही थी अभी, सर्दी के दिन थे। सारा गाँव उस फकीर के झोपड़े की तरफ चल पड़ा। उन्होंने जाकर उस फकीर के झोपड़े में आग लगा दी। वह फकीर बैठा हुआ था बाहर, धूप लेता था। वह पूछने लगा, क्या हो गया है, क्या बात है आज सुबह ही सुबह इतनी भीड़, आज सुबह ही सुबह इस झोपड़े में आग लगा देना ? हो क्या गया है, बात क्या है ?
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भीड़ में से एक आदमी आगे आया और एक छोटे से बच्चे को लाकर उस संन्यासी की गोद में पटक दिया और कहा : हमसे पूछते हो बात क्या है ? इस बच्चे को पहचानो !
उस संन्यासी ने गौर से देखा और उसने कहा : अभी मैं अपने को ही नहीं पहचानता तो इस बच्चे को कैसे पहचान सकूंगा ? कौन है यह बच्चा, मुझे पता नहीं है !
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लेकिन भीड़ हंसने लगी और पत्थर फेंकने लगी और कहा बहुत नादान और भोले बनते हो। इस बच्चे की मां ने कहा है कि यह बच्चा तुमसे पैदा हुआ है और इसीलिए हम सारे गाँव के लोग इकट्ठे हुए हैं। हमने तुम्हारी जो प्रतिमा बनायी थी वह खंडित हो गई। हमने तुम्हें जो पूजा दी थी वह हम वापस लेते हैं और इस नगर में हम तुम्हारा मुंह दुबारा नहीं देखना चाहेंगे।
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उस संन्यासी ने उनकी तरफ देखा। उतनी प्यार से भरी हुई आँखें - उसकी आँखे तो सदा ही प्यार से भरी हुई थीं, लेकिन उस दिन का उसका प्यार देखने जैसा था। लेकिन वे लोग नहीं पहचान सके उस दिन उस प्यार को, क्योंकि वे इतने क्रोध से भरे थे कि प्यार की खबर उनके हृदय तक नहीं पहुंच सकती थी। नहीं पहचान सके उस दिन उन आँखों को जिनसे करुणा छलक पड़ती थी, क्योंकि अंधे सूरज को कैसे देख सकते हैं ? सूरज खड़ा रहे द्वार पर और अंधे वंचित रह जाते हैं। उस दिन वे अंधे थे क्रोध में, निंदा में। उस दिन नहीं दिखाई पड़ा उस संन्यासी का प्रकाश।
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वह संन्यासी हंसने लगा। फिर वह बच्चा रोने लगा जो उसकी गोद में गिर पड़ा था। वह उस बच्चे को समझाने लगा। और उन लोगों ने पूछा : कहो, यह तुम्हारा बच्चा है ? है न ?
उस संन्यासी ने सिर्फ इतना कहा : इज़ इट सो ? ऐसी बात है ? आप कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। फिर वे गाँव के लोग वापस लौट गए।
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फिर दोपहर वह संन्यासी भीख मांगने उस गाँव में निकला। कौन देगा उसे भीख लेकिन ? वे लोग जो उसके चरण छूने को लालायित रहते थे, वे लोग जो उसके चरणों की धूल उठा कर माथे से लगाते थे, उन्होंने उसे देखकर अपने द्वार बंद कर लिए। लोगों ने उसके ऊपर थूका, पत्थर और छिलके फेंके। 
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और वह संन्यासी चिल्ला - चिल्ला कर उस गाँव में कहने लगा कि होगा कसूर मेरा, लेकिन इस भोले बच्चे का कोई कसूर नहीं। कम से कम इसे दूध तो मिल जाए। लेकिन यह गाँव बहुत कठोर हो गया था। उस गाँव में उस बच्चे को भी दूध देने वाला कोई न था। फिर वह उस घर के सामने आकर खड़ा हो गया जिस घर की लड़की ने यह कहा था कि यह बच्चा संन्यासी से पैदा हुआ है। वह वहां चिल्लाने लगा कि कम से कम इस बच्चे कि कम से कम इस बच्चे के लिए दूध मिल जाए।
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वह लड़की आई बाहर और अपने पिता के पैरों पर गिर पड़ी और उसने कहा : क्षमा करना ! इस संन्यासी से मेरा कोई भी संबंध नहीं है। मैंने तो इस लड़के के असली बाप को बचाने के लिए संन्यासी का झूठा नाम ले दिया था। भीड़ इकट्ठी हो गई। बाप उस संन्यासी के पैर गिरने लगा और कहने लगा : लौटा दें इस बच्चे को। नहीं - नहीं, यह बच्चा आपका नहीं है।
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वह संन्यासी पूछने लगा : इज़ इट सो ? नहीं है मेरा ? ऐसा है क्या, मेरा नहीं है यह बच्चा ?
वे लोग कहने लगे : तुम हो कैसे पागल ! तुमने सुबह ही क्यों न कहा कि यह बच्चा मेरा नहीं है।
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वह संन्यासी कहने लगा :इससे क्या फर्क पड़ता है। बच्चा किसी का तो होगा। इससे क्या फर्क पड़ता है कि किसका है। बच्चा बच्चा है, इतना ही साफ है, इतना ही काफी है। और इससे क्या फर्क पड़ता था, तुमने एक झोपड़ा तो जला ही दिया था और एक आदमी को तो गालियाँ दे ही चुके थे। अब मैं और कहता कि मेरा नहीं है, तो तुम एक झोपड़ा शायद और जलाते, किसी एक आदमी को और गालियाँ देते। उससे फर्क क्या पड़ता था ?
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पर वे लोग कहने लगे : तुम हो कैसे पागल! तुम्हारी सारी इज्ज़त मिट्टी में मिल गई और तुम चुपचाप बैठे रहे जब कि बच्चा तुम्हारा नहीं था।
वह संन्यासी कहने लगा : उस इज्ज़त की अगर हम फिकर करते तो चौथे दरवाज़े पर ही रुक जाते। नहीं, उस इज्ज़त की कोई चिंता नहीं है, उसकी कोई अपेक्षा नहीं है। वह तुम्हारा जो आदर तुमने दिया था, हमारी तरफ से मांगा नहीं गया था और चाहा नहीं गया था। तुमने छीन लिया, तुम्हारा दिया हुआ आदर था, तुम्हारे हाथ की बात थी, न हमने मांगा था, न छीनते वक़्त हम रोकने के हक़दार थे। नहीं वह कहने लगा चौथे द्वार पर हम रुक जाते। 
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गाँव के लोग पूछने लगे, कौन सा चौथा द्वार ?
उसी चौथे द्वार (प्रभु - मंदिर का पहला द्वार : करुणा, दूसरा द्वार : मैत्री, तीसरा द्वार : मुदिता) की मैं आपसे बात कर रहा हूं। उस चौथे द्वार पर लिखा है : उपेक्षा, इनडिफरेंस। जीवन में जो व्यर्थ है उसके प्रति उपेक्षा। उस संन्यासी ने अद्भुत उपेक्षा प्रकट की। नहीं, जरा भी चिंता न ली इस बात की कि लोग क्या कहेंगे, पब्लिक ओपिनियन, जनमत क्या कहेगा !
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जो आदमी जनमत के संबंध में सोचता रहता है, वह कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचता है, इसे स्मरण रख लेना। लोग क्या कहेंगे ? इससे ज्यादा कमजोर, इस बात को सोचने से ज्यादा नपुंसक कोई वृत्ति नहीं है कि लोग क्या कहेंगे। जो लोग भी इस चिंता में पड़ जाते हैं कि लोग क्या कहेंगे, वे भीड़ के जो असत्य हैं उन्ही असत्‍यों में जीते हैं और उन्हीं असत्‍यों में मर जाते हैं, वे कभी सत्य की खोज नहीं कर पाते हैं।
ओशो "साधना पथ"

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