शनिवार, 28 सितंबर 2024

*अवतार वेद-विधि के परे हैं*

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*प्रेम लग्यो परमेश्वर सों तब,*
*भूलि गयो सिगरो घरु बारा ।*
*ज्यों उन्मत्त फिरें जितहीं तित,*
*नेक रही न शरीर सँभारा ॥*
*श्वास उसास उठे सब रोम,*
*चलै दृग नीर अखंडित धारा ।*
*सुंदर कौन करे नवधा विधि,*
*छाकि पर्यो रस पी मतवारा ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*अवतार वेद-विधि के परे हैं*
गिरीश फिर कमरे में श्रीरामकृष्ण के सामने आकर बैठे, पान खा रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - राखाल आदि ने अब समझा है कि कौनसा अच्छा है और कौनसा बुरा, क्या सत्य है और क्या मिथ्या । ये लोग जो संसार में जाकर रहते हैं, जान-बूझकर ऐसा करते हैं । स्त्री है, लड़का भी हो गया है, परन्तु समझ में आ गया है कि यह सब मिथ्या है, अनित्य है । राखाल आदि जितने है ये संसार में लिप्त न होंगे ।
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"जैसे 'पाँकाल' मछली । वह रहती तो पंक(कीच) के भीतर है, परन्तु उसकी देह में कीच कहीं छू भी नहीं जाता ।"
गिरीश - महाराज, यह सब मेरी समझ में नहीं आता । आप चाहें तो सब को निर्लिप्त और शुद्ध कर दे सकते हैं । संसारी हो या त्यागी, सब को आप शुद्ध कर सकते हैं । मेरा विश्वास है, मलयानिल के प्रवाहित होने पर सब काठ चन्दन बन जाते हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - सार वस्तु के बिना रहे चन्दन नहीं बनता । सेमर तथा इसी तरह के कुछ अन्य पेड़ चन्दन नहीं बनते ।
गिरीश - यह मैं नहीं मानता ।
श्रीरामकृष्ण - किन्तु नियम तो ऐसा ही है ।
गिरीश – आपका सब कुछ नियम के बाहर है ।
भक्तगण निर्वाक् होकर सुन रहे हैं । मणि का हाथ पंखा झलते हुए कभी कभी रुक जाता है ।
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श्रीरामकृष्ण - हाँ, हो सकता है । भक्ति-नदी के उमड़ने पर चारों ओर बाँसभर पानी चढ़ जाता है ।
"जब भक्ति-उन्माद होता है, तब वेद-विधि नहीं रह जाती । दूर्वादल तोड़कर भक्त फिर चुनता नहीं । हाथ में जो कुछ आ जाता है, वही ले लेता है । तुलसी-दल लेते समय उसकी डाल तक तोड़ लेता है । अहा, कैसी अवस्था बीत चुकी है !
(मास्टर से) "भक्ति के होने पर और कुछ नहीं चाहता ।"
मास्टर - जी हाँ ।
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श्रीरामकृष्ण - किसी एक भाव का आश्रय लेना पड़ता है । रामावतार में शान्त, दास्य, वात्सल्य, सख्य, ये सब भाव थे; कृष्णावतार में ये सब तो थे ही, मधुरभाव एक ज्यादा था ।
"श्रीमती (राधा) के मधुरभाव में प्रणय है । सीता में वह बात नहीं है, उसका शुद्ध सतीत्व है ।
"उन्हीं की लीला है । जब जैसा भाव उचित हो, उसे धारण करते हैं ।"
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विजय गोस्वामी के साथ दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में एक पगली-सी स्त्री श्रीरामकृष्ण को गाना सुनाने के लिए जाया करती थी । वह काली-संगीत और ब्रह्मगीत गाती थी । सब लोग उसे पगली कहते थे । वह काशीपुर के बगीचे में भी प्रायः आया करती है और श्रीरामकृष्ण के पास जाने के लिए बड़ा उपद्रव मचाती है । भक्तों को इसीलिए सदा सतर्क रहना पड़ता है ।
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श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - पगली का मधुरभाव है । दक्षिणेश्वर में एक दिन गयी थी, एकाएक रोने लगी । मैंने पूछा, 'तू क्यों रोती है ?' उसने कहा, 'सिर में दर्द हो रहा है ।' (सब लोग हँसते हैं)
"एक दिन और गयी थी । मैं भोजन करने के लिए बैठा था । एकाएक उसने कहा, ‘आपकी कृपा नहीं हुई ?' मैं भोजन कर रहा था, उसके मन में क्या था मुझे मालूम नहीं । उसने कहा, 'आपने मुझे मन से उतार क्यों दिया ?' मैंने पूछा, 'तेरा भाव क्या है ?' उसने कहा, 'मधुरभाव' । मैंने कहा, 'अरे, मेरी मातृयोनि है । मेरे लिए सब स्त्रियाँ माताएँ है ।' तब उसने कहा, 'यह मैं कुछ नहीं जानती ।'
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तब मैंने रामलाल को पुकारकर कहा, 'रामलाल, जरा सुन तो, 'मन से उतारने' का प्रयोग यह किस अर्थ में कर रही है ?' उसमें वही भाव अब भी है ।"
गिरीश - वह पगली धन्य है ! चाहे वह पगली हो, और चाहे भक्तों द्वारा मारी भी जाय, परन्तु आठों पहर वह करती तो आप ही की चिन्ता है । - वह चाहे जिस भाव से करे, उसका अनिष्ट कभी हो ही नहीं सकता ।
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"महाराज, क्या कहूँ, पहले मैं क्या था और आपको सोचकर क्या हो गया ! पहले आलस्य था, इस समय वह आलस्य ईश्वरनिर्भरता में परिणत हो गया । पहले पापी था, परन्तु अब निरहंकार हो गया हूँ । और क्या क्या कहूँ !”
भक्तगण चुप हैं । राखाल पगली की बातें कहते हुए दुःख प्रकट कर रहे हैं । उन्होंने कहा, 'क्या कहें, दुःख होता है, वह उपद्रव करती है, इसीलिए उसे बहुत कुछ कष्ट भी मिलता है ।'
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निरंजन - (राखाल से) - तेरे बीबी है, इसीलिए तेरा मन इस तरह छटपटाता है । हम लोग तो उसे लेकर बलि चढ़ा सकते हैं !
राखाल - (विरक्ति से) - बड़ी बहादुरी करोगे ! उनके (श्रीरामकृष्ण के) सामने ये सब बातें कर रहे हो !
(क्रमशः)

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