सोमवार, 23 सितंबर 2024

पवन की नींव महल मटिया कौ

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू जियरा जायगा, यहु तन माटी होइ ।*
*जे उपज्या सो विनश है, अमर नहीं कलि कोइ ॥*
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*शरीर की नश्वरता ॥*
हाँ रे भाई, पवन की नींव महल मटिया कौ ।
ताकौं चेजारौ चिणत न थाकौ ॥टेक॥
थंभ खंभ दीसैं दस द्वारे ।
चित्तरि चितरि अनूप सँवारे ॥
सीस कलस्स कली कस लाइ ।
बिन दीपक यामैं रह्यौ न जाई ॥
घाट सुघाटि सुघड़ि घटि घड़िया ।
पवन चल्या तब मन्दिर पड़िया ॥
बषनां कहै समझि मन मोरा ।
हरि भगति बिना कवन गढ तोरा ॥१३॥
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पवन = वायु = प्राण । नींव = आधार । महल = शरीर । मटिया = मिट्टी = सामग्री = पंच तत्वों का है । चेजारौ = माया शवलित ईश्वर । चिणत = निर्माण करते करते । दसद्वारे = दश द्वार । चित्तरि = अंग-प्रत्यंग । चितरि = बनाकर । कलस्स = कलश = मुकुट = श्रेष्ठ । कली = त्वचा । कस = शोभा । दीपक = आत्मा, प्राण । घाट = शरीरांग । सुघाटि = प्रत्यंग । सुघड़ि = सुडौल, सुंदर । घटि = शरीर । घड़िया = बनाया है । पवन = प्राण । गढ = शरीर । हाँ = साधक द्वारा प्रश्न करने पर उपदेशक पूछे गये विषय का निश्चयात्मक निर्वचन करने की स्वीकृति देता है ।
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हाँ, ए साधक ! श्वास-प्रश्वास की नींव वाले पंचभूतात्मक सामग्री से निर्मित शरीर को बनाते-बनाते चेजारा = कारीगर रूपी परमात्मा = ईश्वर कभी भी थकता नहीं किन्तु तू है कि देवदुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर भी उस अकारण करुणा-वरुणालय परमात्मा को प्राप्त करके इसे पुनः धारण करने के झंझट से मुक्त नहीं होता ।
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‘कबहुँक करि करुणा नर देही । देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥’ इस शरीर रूपी भवन में दो हाथ रूपी थंभ (स्तंभ) तथा दो पैर रूपी खंभे (स्तंभ) हैं । दशद्वार रूपी दश गवाक्ष = खिड़की आदि हैं । इनके अतिरिक्त और भी अनेक अनूपम आतंरिक और बाह्य अंग-प्रत्यंगों को बनाकर यथा स्थान सुसज्जित किया है ।
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कलश रूपी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मस्तक बनाया है । सारे शरीर की दीप्ती हेतु त्वचा का निर्माण किया है और उसमें प्राण रूपी दीपक की स्थापना करके चेतनता रूपी प्रकाश भी प्रदान किया है क्योंकि बिना प्राण के सुन्दर सुडौल शरीर रूपी घर में एक पल भी कोई रहता नहीं है । बिना प्राण के आत्मा शरीर से निकल जाती है ।
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शरीर को सुन्दर अंग-प्रत्यंगों सहित बनाया है किन्तु जैसे ही इसमें से प्राण निष्क्रमण करता है वैसे ही इसकी संज्ञा मृत हो जाती है । यह निर्जीव, निःसत्त्व हो जाता है ।
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बषनांजी कहते हैं, हे मेरे मन ! ऊपर कही गई बातों को सावधानी पूर्वक सुनकर हृदयंगम करले । बिना हरि की भक्ति किये तेरा कोई भी स्थान अपना नहीं है । अथवा, बता । बिना हरि की भक्ति किये तेरा कौनसा गढ़ = स्थान है ॥१३॥
(क्रमशः)

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