सोमवार, 23 सितंबर 2024

*४४. रस कौ अंग ९/१२*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ९/१२*
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सब मुनि रीझै रांम रमि, ब्रह्मा विषनु महेस ।
जगजीवन रस पीवतां, पार न पावै सेस ॥९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सभी मुनि जन ब्रह्मा विष्णु महेश, राम रस में रमते हैं उस आनंद रस को पीकर शेष जी भी उसका पार नहीं पाते हैं ।
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बस्तु अनूपम रांमरस, अम्रित धारा नीर ।
आदि अंत मधि एक रस, पिवै सु पाका पीर४ ॥१०॥
(४. पाका पीर=पक्का सिद्ध)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम नाम अद्भुत आनंद रस है जो अमृत धारा सदृश बहता है यह शुरु से मध्य व अंत तक एक समान है जो पान करता है वह पक्का सिद्ध है ।
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जे रस ब्रह्मादिक पिया, सनकादिक मन सोधि ।
सो रस जगजीवन पिवै, मन अरु पवन निरोधि५ ॥११॥
(५. मन....निरोधि=मन एवं प्राण का संयम)
जो आनंदरस ब्रह्मा ने पीया है व सनकादिक ऋषियों ने मन से जांच कर जिसका पान किया है वह ही भक्तिरुपी आनंद रस संतजगजीवन जी बाह्य पवन व मन विकारों को रोक कर आनंदपूर्वक पान कर रहे हैं ।
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उनमनि तालीरस६ रहै, उपजै भगति अगाध ।
घर मांहीं घर जांणि लैं, जगजीवन ते साध ॥१२॥
(६. ताली रस=निरन्तर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो जीवात्मा आतुर होकर भक्ति भाव में रत रहते हैं वे अंतर में ही परमात्मा के दर्शन व स्थिति को जान लेते हैं उनका मन ही मन्दिर होता है ।
(क्रमशः)

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