सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

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*दादू जे तैं अब जाण्या नहीं, राम नाम निज सार ।*
*फिर पीछै पछिताहिगा, रे मन मूढ गँवार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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छठवीं–यह वह पुस्तक है जिसके बारे में मैं हमेशा से चर्चा करना चाहता था; इसे मेरे सुबह के अंग्रेजी प्रवचन के लिए चुना भी गया था। मैं पहले ही इस पर हिंदी में बोल चुका हूं और इसका भी अनुवाद किया जा सकता है। पुस्तक शंकराचार्य द्वारा लिखी गई है–इस समय वाला मूढ़ नहीं, बल्कि आदि शंकराचार्य, जो असली हैं।
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पुस्तक एक हजार साल पुरानी है, इसमें सिवाय एक छोटे से गीत के और कुछ भी नही है: ‘‘भजगोविन्दम्‌ मूढ़मते–हे मूढ़…’’ अब, देवगीत, ध्यान से सुनो: मैं तुमको नहीं कह रहा हूं, यह पुस्तक का शीर्षक है। ‘‘भजगोविन्दम्‌’’–गोविंद को भजो–‘‘मूढ़मते,’’ हे मूढ़। हे मूढ़, गोविंद को भजो।
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लेकिन मूढ़ नहीं सुनते हैं। वे कभी किसी की नहीं सुनते हैं, वे बहरे हैं। और अगर वे सुन भी लें, तो उनकी समझ में नहीं आता। वे जड़बुद्धि हैं। और अगर वे समझ भी लें, तो वे अनुसरण नहीं करते; और जब तक तुम अनुसरण नहीं करते, तब तक समझ अर्थहीन है। समझना केवल तभी समझना कहा जाएगा जब तक कि वह तुम्हारे अनुसरण से सिद्ध न हो जाए।
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शंकराचार्य ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं, लेकिन उनमें से कोई भी इस गीत जितनी सुंदर नहीं हैं: ‘‘भजगोविन्दम्‌ मूढ़मते।’’ इन तीन या चार शब्दों पर मैं बहुत बोल चुका हूं, लगभग तीन सौ पेज। किंतु तुम्हें पता है कि मुझे गीत गाना कितना पसंद है; अगर मुझे मौका मिले तो मैं निरंतर गाता ही रहूं। लेकिन मैं यहां किसी भी तरह इस पुस्तक का उल्लेख करना चाहता था।
~ पन्द्रहवां प्रकरण,
मेरी प्रिय रही पुस्तकें, ओशो.

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