सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

*श्रीशंकराचार्यजी की पद्य टीका*

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*निश्‍चल ते चालै नहीं, प्राणी ते परिमाण ।*
*साथी साथैं ते रहैं, जाणैं जाण सुजाण ॥*
*ते निर्गुण आगुण धरी, मांहैं कौतुकहार ।*
*देह अछत अलगो रहै, दादू सेव अपार ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*श्रीशंकराचार्यजी की पद्य टीका*
*इन्दव-*
*राम समुख्ख किये विमुखी नर,*
*ले जग में प्रभुता विसतारी ।*
*जैन-जती सब फैल रहे जग,*
*हाथ न आवत बात विचारी ॥*
*देह तजी नृप के तन पैसत,*
*ग्रंथ दियो करि मोह निवारी ।*
*शिष्यन से कहि देह अवेशहि,*
*देखि सुनावहु आत तयारी ॥४१९॥*
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भगवान् से विमुख मनुष्यों को भगवान् के सन्मुख किया और उनको अपना कर जगत् में प्रभुता का विस्तार किया था ।
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सब जगत् में जैन धर्मानुयायी जती लोग फैल रहे थे उनको जीता, मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में जीता; किन्तु मण्डनमिश्र की धर्मपत्नी भारती ने कहा- मिश्र अभी आधे ही हारे हैं, मुझे शास्त्रार्थ में जीतने से ही आप विजयी हो सकते हैं । उसने शास्त्रार्थ करते समय सोचा अन्य शास्त्रों की चर्चा में तो ये मेरे हाथ नहीं आ रहे हैं अर्थात् नहीं हार रहे हैं ।
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अतः उसने काम शास्त्र संबंधी प्रश्न किये । उसके प्रश्न सुनकर सर्वज्ञ शंकराचार्यजी ने विचार किया-" इनका उत्तर देता हूँ तो यति धर्म में दोष आयेगा । लोग कहेंगे ये बाल ब्रह्मचारी हैं, इनको इन बातों का कैसे पता लगा- यह सोच कर मेरे यतीत्व में संशय करेंगे । और उत्तर नहीं देना इनसे हारना होगा । अतः उनने कुछ समय के अवकाश के बाद शास्त्रार्थ करने की माँग की । भारती ने स्वीकार कर लिया ।
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फिर आप अमरु राजा को मृतक देखकर मोह को दूर करने वाला "मोह मुद्गर" लघु ग्रंथ रचकर तथा अपने शिष्यों को देकर बोले- "मैं इस राजा के शरीर में प्रवेश करता हूँ । यदि उचित समय पर अपने शरीर में पुनः नहीं आऊँ, राजा के शरीर में ही कहीं मोहावेश से मेरी आसक्ति हो जाय, ऐसा देखो तो तत्काल मेरे पास आकर मुझे यह ग्रन्थ सुनाना । इसके सुनते ही मैं आने की तैयारी करूँगा"॥
(क्रमशः)

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