गुरुवार, 17 अक्तूबर 2024

*४४. रस कौ अंग ३३/३६*

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*४४. रस कौ अंग ३३/३६*
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रांम बासना रांम रस, रांम स्वाद रुचि रांम ।
कहि जगजीवन रांम अंन७, रांम उदिक८ निज ठांम ॥३३॥
(७. अंन=अन्न) (८. उदिक=जल)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम ही वांछनीय है राम ही आनंदरस है राम ही अभ्यास है राम में ही रुचि है राम ही अन्नजल है । अपने तो सर्वत्र राम ही है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, रस मंहि रोगी देह ।
या है कोई सुभाव९ हरि, कै कहुं अनंत सनेह ॥३४॥
(९. सुभाव=स्वभाव, प्रकृति)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस आनंद में देह क्षीण है तो कारण या तो अभ्यास अन्य है या अनुराग अन्यत्र है ।
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रांम रिदै रस नूर मंहिं, षट रस उतपति भोग ।
कहि जगजीवन नांउ हरि, जोग बियोगी रोग ॥३५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि ह्रदय में राम नाम हो और प्रभु मूर्ति मन में हो तो छ रस व सभी भोग विलास धरे हों तो भी श्रेष्ठ नाम ही है जो संतजन लेवें तो प्रभु वियोग में ही योग धारण करते हैं ।
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कहि जगजीवन जुगल रस, प्रव्रति१ निव्रिति२ नांम ।
पंच सुभाव३ नांम तजि, रांम कहै तहँ रांम ॥३६॥
(१. प्रविति=प्रवृत्ति=लोक व्यवहार) (२. निव्रिति=निवृत्ति=वैराग्य)
(३. पंच सुभाव=पाँचों इन्द्रियों के कर्म)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसार में ही दो प्रकार से ही आनंद है या तो प्रभु नाम में प्रवृत्ति बना कर या उससे निवृत हो संसार में लगकर । पांचों इन्द्रियों के आस्वदनों को त्याग कर जो जन राम कहते हैं वहां ही राम होते हैं ।
(क्रमशः)

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