बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

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*साचा शब्द कबीर का, मीठा लागै मोहि ।*
*दादू सुनतां परम सुख, केता आनन्द होहि ॥*
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*साभार ~ @Ramraj Riyar*
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#कबीर_नहीं_देखा
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उस दिन घोर रात थी, तभी शहंशाह के कुछ सिपाई आये और उन्होंने दरवाजा खटखटाया, दरवाजा एक व्यक्ति के द्वारा खोला गया, जैसे ही सिपाहियों ने उस व्यक्ति को देखा तो उससे कहा कि, कल सुबह तुम्हें शहंशाह के दरबार में हाजिर होना है, आ जाना, वो तुमसे मिलना चाहते हैं, वो साधारण सा दिखने वाला व्यक्ति असाधारण व्यक्तित्व का मालिक था, बोला कि मैं आ जाऊँगा..सिपाही ये सुनकर चले गए, और वो व्यक्ति भी निश्चिंत होकर सो गया..
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कहते हैं उस व्यक्ति का नाम कबीर था, जिसका अर्थ होता है-- महान...और उसमें महानता का ये गुण कूट कूटकर भरा था.. सुबह हुई तो कबीर ने तैयार होना शुरू किया, उन्होंने सूफी संतों की तरह ही सफेद वस्त्र पहने और सर पर एक साफा भी सूफियों की तरह ही बाँधा, फ़िर वे घर के आँगन में गए, जहाँ अक्सर मोर नृत्य करते हुए अपने पंख छोड़ जातीं थीं, कबीर ने एक मोरपंख उठाया और भगवान कृष्ण की तरह ही उसे अपने मुकुट अर्थात् सर पे बाँधे साफे में लगा लिया..यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि जीवन भर वे रामतत्व को खोजते रहे थे, पर आज वे श्याम तत्व को अपने माथे पे रखे हुए थे..
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माथे पर चंदन घिसकर लगाया जो हिंदू मान्यताओं के अनुसार हिंदू लगाया करते थे फिर उसके बाद कबीर ने अपनी आँखों में सुरमा लगाया, क्योंकि मान्यता है कि पैगम्बर मोहम्मद साहब अपनी आँखों में सुरमा लगाते थे, और उनके द्वारा किया गया हर कार्य, धार्मिक दृष्टिकोण से मुसलमानों के लिए सुन्नत होता है.. अब अंत में उन्होंने शहंशाह के दरबार में जाने से पहले अपने गुरु का ध्यान किया, तो गुरु ने चेतना दी..कबीर पुरानी यादों में खो गए और उस दिन के पास पहुँच गए जब वे अपने गुरु से पहली बार मिले थे..
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कहानी कुछ ऐसी है कि उनके गुरु संत रामानन्द एक उच्च कोटि के ब्राह्मण थे और भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त..कबीर जब उनकी प्रतिभा और प्रसिद्धि सुनकर शिष्य बनने उनके पास पहुँचे तो संत रामानन्द ने कबीर को शिष्य बनाने से इंकार कर दिया, तो कबीर ने एक युक्ति खोजी, संत रामानन्द रोज सुबह ब्रह्ममुहूर्त में काशी के पंचगंगा घाट पे गंगा में स्नान करने आते थे, तो एक दिन कबीर आकर उसी घाट की सीढ़ियों पे लेट गए, भोर में अंधेरा होता ही है....
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संत रामानंद अपनी मस्ती में राम-राम उच्चारित करते हुए चले आ रहे थे, सो जैसे ही उनका पाँव सीढ़ियों पर लेटे हुए कबीर पर पड़ा सो संत रामानंद जी के मुख से निकलने वाले शब्द राम-राम के उच्चारण और तेज हो गए.. और वे स्वयं से बोले राम-राम, ना जाने किस जीव पे पाँव रखा हो गया, कहते हैं कबीर ने उसी क्षण से राम नाम को अपना गुरुमंत्र मान लिया, जब रामानंद जी का पाँव कबीर पे पड़ा तो संत रामानंद ने उठाकर उस जीव को देखना चाहा कि कहीं उसे कोई चोट न पहुँची हो..
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इसी क्रम में संत रामानंद जी के गले से एक तुलसीमाला कबीर के गले में आ गिरी थी, जब रामानंद जी ने पूछा कि तुम ठीक तो हो, चोट तो नहीं लगी, तो कबीर ने संत रामानंद जी के पैर पकड़ लिए और कहा नहीं लगी, पर वहाँ अवश्य लगी है, जहाँ कई जन्मों के पुण्यों से कभी-कभी लगती है..और वे उठकर वहाँ से निकल गए, कबीर ने तय किया कि आज से यही मेरा गुरुमंत्र है और ये माला मेरे गुरु का सच्चा आशीर्वाद है, कबीर ने वो माला अपने पास रख ली..आज पता नहीं क्यों कबीर को अपने गुरु के आशीर्वाद और चेतना से उसी माला की याद आयी है, और कबीर ने वो माला अपने गले में धारण कर ली है..
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अब कबीर शहंशाह के दरबार में जाने के लिए पूरी तरह तैयार हो चुके हैं, उनका भेष आज अजीब है, जो इससे पहले उन्होंने कभी नहीं बनाया है, लोग उन्हें घूर घूर कर देख रहे हैं, और सोच रहे हैं कि आज इसे पता चलेगा कि हिंदू और मुसलमानों की आस्था से खेलना कितना महँगा है, हिन्दू सोच रहे हैं कि हमेशा राम-राम करता है पर कभी मंदिर नहीं जाता, और मुसलमान सोच रहे हैं कि जाति से मतलब कबीर को पालन पोषण करने वाले दंपत्ति चूंकि मुस्लिम थे, तो इस नाते वे भी मुस्लिम हुए, परंतु कबीर कभी नमाज पढ़ने भी मस्जिद नहीं जाते थे...
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सो आज हर कोई खुश था कि आज कबीर को सच में अपनी करनी का पता चलेगा.. कबीर कहते थे कि--
जो तू ब्राह्मण ब्रम्हाणी को जाया, और राह दे काहे न आया..
जो तू तुरक तुरकनी को जाया, पेटहि काहे न सुन्नति कराया..
मतलब अगर ब्राह्मण ब्रम्हा के मुख से उत्पन्न हुए हैं तो जन्म किसी और रास्ते से लेकर ये सिद्ध क्यों नहीं करते, ये सुनकर आज हिन्दू उनके विरोध में हैं.. और मुसलमान खुद को कहने वाले जन्म से ही सुन्नत कराके क्यों नहीं आ जाते, क्या ईश्वर को कोई अक्ल नहीं रही होगी इंसानी रचना को बनाते वक्त, तब ये सुनकर मुसलमान उनके विरोधी हो जाते हैं..
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वे कर्मकांडों, आडंबरों, बलि आदि के भी विरोधी हैं, जिससे समाज एक बड़ा वर्ग आज उनका विरोधी है, और आज मन ही मन भयंकर खुश है कि जो आज कबीर शहंशाह से ऐसी बातें करेगा तो अवश्य ही दंडित होगा.. नोट -- कबीर के जन्म के बारे में एक मान्यता यह भी है कि वे एक तालाब में एक कमल के फूल पे एक मुस्लिम दंपत्ति को पहली बार दिखे थे, वो दंपत्ति ही उन्हें अपने साथ अपना पुत्र मानकर(चूंकि उस दंपत्ति की कोई संतान न थी) ले आया था..
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कबीर आज सुबह से तैयार होने में व्यस्त हैं जिस व्यक्ति ने जीवनभर बाहर की चीजों और शरीर को नश्वर कहा, आज वो इतने चाव से अपनी वेशभूषा और खुद को तैयार करने में लगा है, सुबह से तैयार होते होते शाम हो चुकी थी और कहते हैं कि उस दिन सुबह के बुलाये हुए कबीर शाम को जाकर शहंशाह के दरबार में पहुँचे थे..शहंशाह ने भी ऐसी अजीबोगरीब वेशभूषा कभी किसी की नहीं देखी थी, क्योंकि न वो हिन्दू ही दिख रहे थे और न मुस्लिम ही दिख रहे थे.. तब शहंशाह ने सबसे पहले कबीर से पूछा कि, तुम काफ़िर का मतलब समझते हो ? और जानते भी हो कि काफ़िर होना कितना बड़ा गुनाह है..
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तब कबीर बोले--
कबीर सोइ पीर है, जो जाने पर पीर
जो पर पीर न जानई, सो काफ़िर बेपीर..
मतलब काफ़िर शब्द का मतलब किसी धर्म विशेष से नहीं, बस उस मनुष्य से है जो मनुष्य होकर भी एक दूसरे मनुष्य की पीड़ा को नहीं समझता, और जो समझता है, वही पीर है मतलब संत है, मतलब जिसने सन्मार्ग की ओर अपना मुख कर रखा है..
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शहंशाह ये सुनकर चिढ़ गया कि इसने तो इस दृष्टिकोण से उल्टा मुझे ही काफ़िर कह दिया.. तब शहंशाह ने फ़िर सोचा और उस समय के एक पहुँचे हुए मौलवी शेख तकी की ओर देखा कि वे अपने वाक चातुर्य से कबीर को फँसा लें, तब शेख तकी ने कबीर से कहा कि तुम हर दम राम-राम करते रहते हो, मान भी लें कि तुम हिन्दू हो, परंतु हिंदुओं में भी मान्यता है कि एक योग्य गुरु से दीक्षा लेकर ही मनुष्य बोध को प्राप्त होता है, तुमने कब और किससे दीक्षा ली..?
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तब कबीर बोले-- कोई भी गुरु अपने हाथों से किसी शिष्य को दीक्षा देता है, जिसमें स्पर्श दीक्षा भी शामिल होती है, पर मेरी कहानी इस मामले में भी विलक्षण ही है, मेरे गुरु ने मुझे अपने पाँव से दीक्षित किया है, बल्कि उन्होंने तो अपने आप को ही मुझ पर रख दिया है, और उनका इतना प्रेम मुझ पर देखकर कि कोई गुरु अपने शिष्य को भूमि मानकर उस पर खड़ा ही हो जाये मतलब स्वयं को उसे ही समर्पित कर दे, राम ने मेरे गुरु के गले की माला मेरे गले में पहना दी, आप इस वक्त जो माला मेरे गले में देख रहे हैं, ये वही माला है..
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शेख तकी भी ऐसा अद्भुत वृत्तांत सुनकर दंग और मौन हो गए.. शहंशाह और भी क्रोधित हो गया बोला कि फिर तुम ही बताओ कि तुम कौन हो ? हिंदू हो, मुस्लिम हो या फिर कोई और ?
तब कबीर बोले--
पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाँव
एक कला के बीछुरे, बिकल होत सब ठाँव..
मतलब पंचतत्वों से बना यह जीव या शरीर है, जिसे मनुष्य नाम दिया गया, पर एक सद्बुद्धि के बिना यह हर जगह पीड़ित ही रहता है..
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तब शहंशाह बोला कि फिर सद्बुद्धि क्या है ?? तो कबीर बोले--
दिया न खता न किया पयाना, मंदिर भया उजार
मरि गए सो जन मरि गए, बाँचे बाँचनहार..
मतलब इस संसार में सभी लोग सांसारिकता को सहेजने में लगे हैं, जबकि वो नश्वर है, वे किसी को कुछ भी देना नहीं चाहते, पर जब कोई जीव मर जाता है, तो उसके द्वारा सहेजा गया वैभव, धन आदि कोई दूसरा ही उपयोग करता है, यही क्रम चलता रहता है..जो समय रहते उसका सच्चा उपयोग सीख लेता है..वही सद्बुद्धि धारणशील प्राणी कहा जाता है..
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तब शहंशाह क्रोध में बोला कि जब तुम इतने ही बड़े ज्ञानी हो तो घर घर जाकर दुनिया भर में घूमकर चेतना क्यों नहीं जगाते, क्यों केवल अपने ही घर में बैठकर लोगों को उपदेश देते रहते हो ?? तब कबीर बोले--
पानी पियावत क्या फिरो, घर घर सायर बारि
तृषावंत जो होयगा, पीवेगा झख मारि..
मतलब कबीर कहते हैं कि इस संसार में सभी अपने आपको ज्ञान का सागर समझते हैं, अपने मन में अहंकार को लेके चलते हैं, जो अपने अहंकार भाव को जीतकर मेरे पास आएगा, मैं उसे सत्यभाव के पास अवश्य ले जाऊँगा, पर मैं पहले से ये काम घर घर जाकर क्यों करूँ..
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तब शहंशाह ने और भी बहुत से प्रश्न कबीर से किये, जो इस लेख में, मेरे लिए संभव नहीं कि मैं लिख पाऊं.. अंत में शहंशाह ने कबीर से पूछा कि तुम्हें मैंने सुबह बुलाया था और तुम शाम ढलने पे आये हो, क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुमने गलत किया ?? तब कबीर बोले कि रास्ते में आ रहा था तो मैंने एक दृश्य देखा बस उसी के आश्चर्य में पड़ गया और समय का भान न रहा, तो शहंशाह बोला कि ऐसा क्या देखा तुमने ??
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तब कबीर बोले कि-- मैंने सुई की नोंक जितनी पतली जगह में से कई हाथी, घोड़ों को निकलते हुए देखा, तो शहंशाह हँसा भी और क्रुद्ध भी हुआ, बोला मेरे साथ मजाक करते हो, तो कबीर बोले शहंशाह, मैं सच कह रहा हूँ, तब शहंशाह बोला कि सिद्ध कर सकते हो, तो कबीर बोले कि-- स्वर्ग और नरक प्राप्ति के बीच दोनों के बीच बड़ा फासला है.. यदि हम सूर्य और चंद्र को, एक सुई के दो सिरे मानकर इसके बीच ये सारा अंतरिक्ष मान लें, तो इस अन्तरिक्ष में कई हाथी और घोड़े गुजर रहे हैं, जो हमारी आंखों की छोटी सी पुतली से भी हम देख सकते हैं, ये आश्चर्य नहीं तो क्या है..
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चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय..
मतलब आकाश और धरती एक चक्की के दो पाट हैं और इसके बीच अनंत जीव दिन रात पिस रहे हैं मतलब उनका जन्म मृत्यु जारी है.. तब उस दिन शहंशाह पहली बार ऐसी बातें सुनकर सोच में पड़ गया और मुस्कुराते हुए कबीर से पूछा कि क्या तुम्हें डर नहीं लगता, क्या इससे बचने के लिए कोई युक्ति खोज ली है तुमने ??
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तो कबीर बोले--मेरे पुत्र(कई मान्यताओं में वे शिष्य भी कहे जाते हैं) से किसी ने यही पूछा, तो उसने जबाब दिया --
चलती चक्की देखकर, दिया कमाल हँसाय
जो कीला से चिपको रहो, ताकों काल न खाए..
मतलब चक्की भी उन दानों को पीसने से छोड़ देती है, जो चक्की के कीले से चिपक जाते हैं, ये वही कीला है, जो चक्की के दोनों पाटों को जोड़ता है..
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कबीर कहते हैं कीला से मतलब स्वयं के आत्मचेतन राम से है, उसी की शरण में चिपके रहोगे तो मुक्ति संभव हो सकती है..
रामहु केर मर्म नहीं जाना....
मतलब कबीर कहते हैं कि राम का किसी ने मर्म नहीं जाना है..
तब शहंशाह पूछता है कि, तेरे राम का मर्म क्या है ??
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तब कबीर कहते हैं कि एक बार मैं काशी में गंगा में नहा रहा था, नहाकर अपने लोटे को वहीं पास में मिट्टी से अच्छी तरह धोकर लौट ही रहा था कि, एक अच्छा व्यापारी सा दिखने वाला सेठ आया और स्नान करने लगा, अपने साथ वो लोटा लाना भूल गया था सो उसे स्नान में असुविधा हो रही थी सो मैंने उससे कहा कि मेरा लोटा ले लो, स्नान में सुविधा होगी, चूंकि वो ऊँचे कुल का था तो मुझ पर चिल्लाया...
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तुम नीची जाति के होकर भी मुझसे लोटे के लिए पूछते हो, यदि तुम्हारा लोटा लिया तो मैं कभी भी शुद्ध नहीं हो सकूँगा, तुम्हारा लोटा अशुद्ध है, तब मैंने उससे कहा कि इस लोटे को मैंने इसी गंगा किनारे की गीली मिट्टी से अंदर और बाहर इसी गंगा के जल से धोया है, यदि ये फिर भी शुद्ध न हुआ तो तुम तो इस गंगा में केवल बाहर से ही स्नान कर रहे हो, अपनी आत्मा को तो स्नान करा ही नहीं रहे हो, तो फिर तुम कैसे शुद्ध हो सकते हो..तो वो चिढ़ गया और मुझे अपशब्द कहते हुए चला गया..
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जिस हृदय में मनुष्य के लिए मनुष्य में प्रेम नहीं, वो कभी भी राम के मर्म को नहीं समझ सकता..
कबीर कहते हैं कि--
जो मैं ऐसा जानता, प्रीति करे दुख होय
नगर ढिंढोरा पीटता, प्रेम न करियो कोय..
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परंतु कबीर कहते हैं, जबकि मैंने इसकी जगह ये देखा कि--
कारी पियरी दुहहु गाई, ताकर दूध देहु बिलगाई..
छाडु कपट नर अधिक सयानी, कहहिं कबीर भजु सारंग पानी..
मतलब काली और पीली गाय के दूध को मिला दिया जाए तो उन्हें फिर अलग अलग पहचाना नहीं जा सकता कि कौन सा दूध किस गाय का है..
इस संसार में हर मनुष्य अपने बुद्धि चातुर्य से अपने ही धर्म को श्रेष्ठ साबित करने में लगा है, जो इसे छोड़कर अपने सारंगपानी मतलब अपने आत्मतत्व को भजता है, वही दूध के मिल जाने जैसे प्रेमतत्व को समझ पाता है..
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कहते हैं कि शहंशाह कबीर के जबाबों से बहुत प्रसन्न हुआ और उन्हें छोड़ दिया गया पर एक मान्यता ये भी है कि अब तक शहंशाह समझ चुका था कि कबीर से बातचीत में जीतना संभव नहीं है, सो उसने फिर कबीर की 52 प्रकार की परीक्षाएँ लीं थीं, जिनमें उनके साथ हिंसा भी की गई थी..पर कहते हैं हर हाल में जीत कबीर की ही हुई..
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जीवन भर कबीर लोगों को सच्चे राम का मर्म समझाते रहे, जब अंत समय आया तो अपने जन्मस्थान काशी को छोड़कर पास में ही एक छोटे कस्बे मगहर में जाने लगे, उस समय मान्यता थी कि मगहर में मरने वाला नरक में जाता है और गधा बनता है, जबकि काशी के बारे में आज भी ये मान्यता है कि-- (काशी मरणानमुक्ति) अर्थात् काशी में मरने वाले को मुक्ति मिलती है.. लोगों ने कबीर से कहा कि आप क्यों मगहर जा रहे हैं तब कबीर बोले--
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(लोका मति के भोरा रे, जो काशी तन तजै कबीरा, तौ रामहि कौन निहोरा रे..) मतलब काशी लोगों को उकसा रही है कि जीवन भर पाप करो, और अंत समय यहाँ आके मर जाओ तो मुक्ति मिलेगी, यदि मैंने जीवन भर राम को भजा है, और यदि मैं काशी की वजह से मुक्ति को पा जाऊँ तो फिर जीवन भर मेरा राम को भजने का क्या प्रयोजन निकला..
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तब लोग बोले तो आप क्या सोचते हैं ? तो कबीर बोले--
मन मथुरा, दिल द्वारका, काया कासी जाणि
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछांणि..
मतलब मन को मथुरा, दिल को द्वारका और देह को ही काशी जानो, दसवाँ द्वार ब्रम्हा रंध्र ही देवालय है, उसी में परम चेतना की खोज करो..
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कहते हैं कबीर साहब का शरीर जब नहीं रहा, तो हिन्दू और मुसलमानों में उनके शरीर का अंतिम क्रियाकर्म करने की होड़ हुई, पर जब वे कबीर साहब के शरीर के पास पहुँचे तो चादर से ढके उनके शरीर की जगह बस चादर से ढके कुछ फूल मिले, जिन्हें हिन्दू और मुसलमानों ने आपस में बाँटकर वहीं पास पास में एक मंदिर और मस्जिद बना दी, जो आज भी है..
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अभी कुछ साल पहले मैं उस जगह गया था, जिसे कबीर का समाधि स्थल कहा जाता है, मंदिर और मस्जिद को इतने पास पास देखकर, एक व्यक्ति का दोनों ही समाज में महत्व और आदर देखकर एक अजीब सा सुकून मिला था, जिसे शब्दों में नहीं लिख सकता हूँ.. कई मित्रों ने मुझसे कहा था कि मैं मेरे जीवन के सभी चार पसंदीदा किरदारों के बारे में सभी को बताऊँ, सबसे पहले मैंने अपनी लिस्ट में से गौतम बुद्ध के विषय में लिखा था जो मेरी पसंदीदा लिस्ट में तीसरे नंबर पे आते हैं और आज मैं, मेरी लिस्ट के चौथे पसंदीदा किरदार कबीर से सभी को मिलवाता हूँ..
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मैंने अपनी इस छोटी सी ज़िन्दगी में कई व्यक्ति देखे जो खुद को हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, पारसी, बौद्ध आदि कहते हैं, कोई स्वयं को नास्तिक और निरंकारी कहते हैं, और भी ना जाने कितने पंथों और धर्मों को मानने और जीने वाले लोग देखे हैं.. पर मैं सच कहता हूँ खुद को इंसान कहने वाला, मैंने कोई नहीं देखा, सच कहूँ तो मैंने उस स्थल पे कबीर को महसूस करने के सिवा फिर कभी किसी के अंदर कोई कबीर नहीं देखा..
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मैंने एक इंसान को एक फूल पे पैदा होते, ज़िन्दगी भर लोगों को फूलों के इत्र जैसा ज्ञान देते और अंत में अपने शरीर की जगह भी फूलों को छोड़ते हुए फिर कभी नहीं देखा.. सच कहूँ तो मैंने फिर कभी कोई कबीर नहीं देखा..

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