शनिवार, 19 अक्तूबर 2024

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*अपनी अपनी जाति सौं, सब को बैसैं पांति ।*
*दादू सेवग राम का, ताके नहीं भरांति ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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अब ऐसा समझो कि महावीर हैं, कृष्ण हैं, क्राइस्ट हैं, मूसा हैं, जरथुस्त्र हैं, कबीर हैं, नानक हैं, लाखों सतपुरुष हुए, इनमें से बस तुम जिसको मानते हो वही सही है, और शेष सब गलत हैं ! जरा सोचो, इस बात का अर्थ क्या होगा ? तुम नानक को मानते हो, बस नानक सही हैं, और सब गलत हैं ! 
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आज एक नयी शंका पैदा होगी—अगर और सब गलत हैं, तो बहुत संभावना इसकी है कि नानक भी गलत हों। निन्यानबे गलत हैं और सिर्फ नानक सही हैं ! और जो निन्यानबे गलत हैं, वे नानक जैसी ही बात कहते हैं! अब तो अगर नानक को भी सही होना है तो बाकी निन्यानबे को भी सही होना पड़ेगा। यह एक नयी घटना है।
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पुराने दिनों में बात उलटी थी, अगर नानक को सही होना था तो निन्यानबे को गलत होना जरूरी था। तभी लोग, मंदबुद्धि, सकीर्णबुद्धि लोग चल सकते थे। आज हालत ठीक उलटी है। पूरा चाक घूम गया। आज हालत यह है, अगर नानक को सही होना है, तो कबीर को भी सही होना है, तो लाओत्से को भी सही होना है, तो बोकोजू को भी सही होना है। 
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तो दुनिया में जहां—जहां संत हुए—किसी रंगरूप के, किसी ढंग के, किसी भाषा, किसी शैली के—उन सब को सही होना है, तो ही नानक भी सही हो सकते हैं। अब नानक अकेले खड़े होना चाहें तो खड़े न हो सकेंगे। अब तो सब के साथ ही खडे हो सकते हैं।
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मनुष्य की बिरादरी बड़ी हुई है। एक नया आकाश सामने खुला है। जैसे विज्ञान एक है, ऐसे ही भविष्य में धर्म भी एक ही होगा। एक का मतलब यह होता है कि जब दो और दो चार होते हैं कहीं भी—चाहे तिब्बत में जोड़ो, चाहे चीन में जोड़ो, चाहे हिंदुस्तान में, चाहे पाकिस्तान में—जब दो और दो चार ही होते हैं। 
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पानी को कहीं भी गरम करो भाप बनता है—चाहे अमरीका में, चाहे अफ्रीका में, चाहे आस्ट्रेलिया में—सौ डिग्री पर भाप बनता है, कहीं भी ना—नुच नहीं करता, यह नहीं कहता कि यह आस्ट्रेलिया है, छोड़ो जी, यहां हम निन्यानबे डिग्री पर भाप बनेंगे ! अगर प्रकृति के नियम सब तरफ एक हैं, तो परमात्मा के नियम अलग—अलग कैसे हो जाएंगे ? अगर बाहर के नियम एक हैं, तो भीतर के नियम भी एक ही होंगे।
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विज्ञान ने पहली भूमिका रख दी है। विज्ञान एक है। अब हिंदुओं की कोई केमिस्ट्री और मुसलमानों की केमिस्ट्री तो नहीं होती, केमिस्ट्री तो बस केमिस्ट्री होती है। और फिजिक्स ईसाइयों की अलग और जैनों की अलग, ऐसा तो नहीं होता। ऐसा होता था पुराने दिनों में। तुम चकित होओगे जानकर, जैनों की अलग भूगोल है, बौद्धों की अलग भूगोल है। भूगोल ! कुछ तो अकल लगाओ ! भूगोल अलग—अलग ! मगर वह भूगोल ही और थी। उस भूगोल में स्वर्ग —नर्कों का हिसाब था। 
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इस जमीन की तो भूगोल थी नहीं वह। इस जमीन की भूगोल का तो कुछ पता ही न था ! वह भूगोल काल्पनिक थी। सात स्वर्ग हैं किसी के भूगोल में, किसी के भूगोल में तीन स्वर्ग हैं, किसी के भूगोल में और ज्यादा स्वर्ग हैं, किसी के भूगोल में सात नर्क हैं, कहीं सात सौ नर्क हैं। कल्पना का जगत था वह। नक्शे तैयार किए थे, मगर सब कल्पना का जाल था। तो भूगोल अलग—अलग थे।
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लेकिन यह भूगोल कैसे अलग हो ? यह वास्तविक भूगोल कैसे अलग हो ? यह तो एक है। अगर यह एक है, तो अंतर्जगत का भूगोल भी अलग—अलग नहीं हो सकता। मनोविज्ञान उसके पत्थर रख रहा है, बुनियाद रख रहा है। जैसे मनुष्य के शरीर के नियम एक हैं, वैसे ही मनुष्य के मन के नियम एक हैं। और वैसे ही मनुष्य की आत्मा के नियम भी एक हैं। अभी संभावना बननी शुरू हुई कि हम उस एक विज्ञान को खोज लें, उस एक शाश्वत नियम को खोज लें।
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अतीत में जो कहा गया है, वह उसी की तरफ इशारा है, लेकिन इतना साफ नहीं था जितना आज हो सकता है। मनुष्य इस भांति कभी तैयार न था, जिस भांति अब तैयार है। भविष्य का धर्म एक होगा। भविष्य में हिंदू—मुसलमान—ईसाई नहीं होंगे, भविष्य में धार्मिक होंगे और अधार्मिक होंगे।
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फिर धर्म की शैलियां अलग हो सकती हैं। किसी को रुचिकर लगता है प्रार्थना, तो रुचि से प्रार्थना करे, लेकिन इससे कुछ झगड़ा नहीं है। किसी को रुचिकर लगता है ध्यान, तो ध्यान करे। और किसी को मंदिर के स्थापत्य में लगाव है, तो मंदिर जाए। और किसी को मस्जिद की बनावट में रुचि है और मस्जिद के मीनार मन को मोहते हैं, तो मस्जिद जाए। 
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लेकिन यह धर्म से इसका कोई संबंध नहीं है, स्थापत्य से संबंध है, सौंदर्य—बोध से संबंध है। तुम अपना मकान एक ढंग से बनाते हो, मैं अपना मकान एक ढंग से बनाता हूं इससे कोई झगड़ा तो खड़ा नहीं होता। मैं अपने भगवान का मकान एक ढंग से बनाता हूं, तुम अपने भगवान का मकान एक ढंग से बनाते हो, इससे झगड़ा खड़ा क्यों हो ? 
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मैं अपना मकान बनाता हूं गोल, तुम चौकोन, इससे कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता। झगड़े की जरूरत ही नहीं, तुम्हारी पसंद अलग, मेरी पसंद अलग, हम दोनों जानते हैं कि मकान का प्रयोजन एक कि मैं इस गोल मकान में रहूंगा, तुम उस चौकोन मकान में रहोगे। रहने के लिए मकान बनाते हैं।
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इतनी स्वतंत्रता तो होनी ही चाहिए कि जिसको जैसी मर्जी हो, वैसा मकान बना ले। पुराने ढंग का बनाए, नए ढंग का बनाए; प्राचीन शैली का बनाए कि कोई नयी शैली खोजे, छप्पर ऊंचा रखे कि नीचा; बगीचा लगाए कि न लगाए; पौधों का बगीचा लगाए कि रेत ही फैला दे, अपनी मौज ! इसमें हम झगड़ा नहीं करते। न हम यह कहते हैं कि तुम तिरछे मकान में रहते, तुम गोल मकान में रहते, मैं चौकोर मकान में रहता, हम अलग—अलग हैं, हम में झगड़ा होगा, हमारे सिद्धात अलग हैं।
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इससे ज्यादा भेद मंदिर—मस्जिद में भी नहीं है। अपनी—अपनी मौज! मस्जिद भी बड़ी प्यारी है। जरा हिंदू की आंख से हटाकर देखना, तो मस्जिद में भी बड़ी आकांक्षा प प्रगट हुई है। वे मस्जिद की उठती हुई मीनारें आकाश की तरफ, मनुष्य की आकांक्षा प की प्रतीक हैं—आकाश को छूने के लिए।
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मस्जिद का सन्नाटा, मस्जिद की शांति, मूर्ति भी नहीं है एक, चित्र भी नहीं है एक—क्योंकि मूर्ति और चित्र भी बाधा डालते हैं—सन्नाटा है, जैसा सन्नाटा भीतर हो जाना चाहिए ध्यान में, वैसा एकन्नाटा है। मस्जिद का अपना सौंदर्य है। खाली सौंदर्य है मस्जिद का। शून्य का सौंदर्य है मस्जिद का।
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मंदिर की अपनी मौज है। मंदिर ज्यादा उत्सव से भरा हुआ है, रंग—बिरंगा है, मूर्तियां हैं कई तरह की, छोटी—बड़ी, लेकिन मंदिर अपना उत्सव रखता है—घटा है, घंटा बजाओ, भगवान को जगाओ, खुद भी जागो, पूजा करो। मंदिर की गोल गुंबद, मंडप का आकार, उसके नीचे उठते हुए मंत्रों का उच्चार, तुम पर वापस गिरती वाणी—मंत्र तुम पर फिर—फिर बरस जाते। 
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एक मंदिर में जाकर ओंकार का नाद करो, सारा मंदिर गुंजा देता है, सब लौटा देता है, तुम पर फिर उंडेल देता है; एक घंटा बजाओ, फिर उसकी प्रतिध्वनि गूंजती रहती है। यह संसार परमात्मा की प्रतिध्वनि है, माया है। परमात्मा मूल है, यह संसार प्रतिध्वनि है, छाया है। मंदिर अलग भाषा है। मगर इशारा तो वही है। फिर हजार तरह के मंदिर हैं।
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दुनिया में धार्मिक और अधार्मिक बचेंगे। लेकिन हिंदू—मुसलमान—ईसाई नहीं होने चाहिए। यह भविष्य की बात है। यहां जो प्रयोग घट रहा है वह उस भविष्य के लिए बड़ा छोटा सा प्रयोग है, लेकिन उसमें बड़ी संभावना निहित है।
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मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि आप लोगों को क्या बना रहे हैं? एक ईसाई मिशनरी ने मुझसे आकर पूछा कि अनेक ईसाई आपके पास आते हैं, आप इनको हिंदू बना रहे हैं ? मैंने कहा, मैं खुद ही हिंदू नहीं तो इनको कैसे हिंदू बनाऊंगा? तो उसने पूछा, आप कौन हैं ?
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मैं सिर्फ धार्मिक हूं इनको धार्मिक बना रहा हूं। और इनको मैं इनके गिरजे से तोड़ नहीं रहा हूं वस्तुत: जोड़ रहा हूं। मेरे पास आकर अगर ईसाई और ईसाई न हो जाए, तो मेरे पास आया नहीं। मुसलमान अगर और मुसलमान न हो जाए, ठीक पहले दफा मुसलमान न हो जाए, तो मेरे पास आया नहीं। हिंदू मेरे पास आकर और हिंदू हो जाना चाहिए। मेरा प्रयोजन बहुत अन्यथा है। वे पुराने दिन गए ! वह पुराने आदमी की संकीर्ण चेतना गयी !
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पर महावीर और बुद्ध चाहते भी तो यह नहीं कर सकते थे। क्योंकि मैं जानता हूं अपने तईं, कि बहुत सी बातें मैं चाहता हूं लेकिन नहीं कर सकता हूं —तुम तैयार नहीं हो। उन्हीं थोड़ी सी बातो को करने की कोशिश में तो भीड़ छटती गयी है मेरे पास से। क्योंकि जो भी मैं चाहता हूं करना, अगर वह जरा जरूरत से ज्यादा हो जाता है तो तुम्हारी हिम्मत के बाहर हो जाता है, तुम भाग खड़े होते हो। तुम मेरे दुश्मन हो जाते हो। 
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थोड़े दुस्साहसी बचे हैं, इनके भी साहस की सीमा है। अगर मुझे इनको भी छांटना हो तो एक दिन में छांट दे सकता हूं इसमें कोई अड़चन नहीं है। इनका साहस मुझे पता है, कितने दूर तक इनका साहस है। उसके पार की बात ये न सुन सकेंगे। उसके पार ये कहेगे—तो फिर अब चले ! अब आप जानो ! अगर मैं सारे भविष्य की बात तुमसे कह दूं तो शायद मेरे अतिरिक्त यहां कोई सुनने वाला नहीं बचेगा। तब कहने का कोई अर्थ न होगा, उसे तो मैं जानता ही हूं कहना क्या है !
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तो जब भी किसी व्यक्ति को सत्य का अनुभव हुआ है, वह अनुभव तो एक ही है, लेकिन जब वह उस अनुभव को शब्दों में बांधता है, तो सुनने वाले को देखकर बांधता है। देखने में दो बातें स्मरण रखनी पड़ती हैं—एक, जो इससे कहा जाए वह इससे बिलकुल ही तालमेल न खा जाए, नहीं तो यह विकसित नहीं होगा। और इसके बिलकुल विपरीत न पड़ जाए, अन्यथा यह चलेगा ही नहीं। इन दोनों के बीच संतुलन बनाना पड़ता है। कुछ तो ऐसा कहो जो इससे मेल खाता है, ताकि यह अटका रहे। और कुछ ऐसा कहो जो इससे मेल नहीं खाता, ताकि यह बढ़े।
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तुम देखे न, जब सीढ़ियां चढ़ते हो तो कैसे चढ़ते हो ? एक पैर एक सीढ़ी पर रखते हो, जमा लेते हो, फिर दूसरा पैर उठाते हो। एक पुरानी सीढ़ी पर जमा रहता है, दूसरा नयी सीढ़ी पर रखते हो। जब दूसरा नयी सीढ़ी पर मजबूती से जम जाता है, तब फिर तुम पुरानी सीडी से पैर उठाते हो। एक पैर जमा रहे पुराने में और एक पैर नए की तरफ उठे तो ही गति होती है। दोनों पैर एक साथ उठा लिए तो हड्डी—पसली टूट जाएगी—गिरोगे। और दोनों जमाए खड़े रहे तो भी विकास नहीं होगा और दोनों एक साथ उठा लिए तो भी विकास नहीं होगा। विकास होता है —एक जमा रहे पुराने में, एक नए की तरफ खोज करता रहे। इस संतुलन को ही अपान में रखना होता है।
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तो तुमसे इसीलिए तो मैं गीता पर बोलता हूं ताकि पुराने पर पैर जमा रहे एक। मगर गीता पर मैं वही नहीं बोलता जो तुम्हारे और बोलने वाले बोल रहे हैं, दूसरा पैर तुम्हारा सरका रहा हूं पूरे वक्त। धम्मपद पर बोल रहा हूं लेकिन कोई बौद्ध धम्मपद पर इस तरह नहीं बोला है जैसे मैं बोल रहा हूं क्योंकि मेरी नजर और है—एक पैर जमा रहे, एक पैर तुम निश्चित रख लो कि चलो भगवान बुद्ध की ही तो बात हो रही तै, कोई हर्जा नहीं। 
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दूसरा पैर मैं सरका रहा हूं। महावीर पर बोलता हूं। तुम बड़े प्रसन्न होकर सुनते हो कि चलो भगवान महावीर की बात हो रही है। निश्चित हो जाते हो। तुम अपना सब सुरक्षा का उपाय छोड्कर बिलकुल बैठ जाते हो तैयार होकर कि चलो यह तो अपनी ही बात हो रही है, उसी बीच तुम्हारा एक पैर मैं सरका रहा हूं। तुम जितने निश्चित हो जाते हो, उतनी ही मुझे सुविधा हो जाती है।
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तुम्हें निश्चित करने को बोलता हूं गीता पर, बाइबिल पर, धम्मपद पर, महावीर पर तुम निश्चित हो जाते हो। तुम कहते हो, यह तो पुरानी बात है, अपने ही शास्त्र की बात हो रही है, इसमें कुछ खतरा नहीं है। खतरा नहीं है, ऐसा सोचकर तुम अपनी ढाल —तलवार रख देते हो। वहीं खतरा शुरू होता है। वहीं से मैं तुम्हें थोड़ा आगे खींच लेता हूं।
ओशो
Osho Prem Naman 💞🙏💐
Osho Meditation Sansthan

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