शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2024

*(३)नरेन्द्र तथा ईश्वर का अस्तित्व*

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*दादू मैं नाहीं तब नाम क्या, कहा कहावै आप ?*
*साधो ! कहो विचार कर, मेटहु तन की ताप ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)नरेन्द्र तथा ईश्वर का अस्तित्व*
श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर हीरानन्द गाड़ी पर चढ़ रहे हैं । गाड़ी के पास नरेन्द्र और राखाल खड़े हुए उनसे साधारण कुशल प्रश्न-सम्बन्धी बातचीत कर रहे हैं । दिन के दस बजे का समय होगा । हीरानन्द कल फिर आयेंगे ।
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आज बुधवार है, चैत्र की कृष्णा तृतीया । २१ अप्रैल, १८८६ । नरेन्द्र बगीचे में टहलते हुए मणि से वार्तालाप कर रहे हैं । घर में उनकी माता और भाइयों को बड़ा कष्ट है । अभी भी वे कोई उत्तम प्रबन्ध नहीं कर सके । इसके लिए उन्हें चिन्ता रहती है ।
नरेन्द्र - विद्यासागर के स्कूल का काम मुझे नहीं चाहिए । मैं गया जाने की सोच रहा हूँ । वहाँ एक जमींदार के मैनेजर की जगह है, एक आदमी ने उसके सम्बन्ध में कहा था । ईश्वर फीश्वर कहीं कुछ नहीं है ।
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मणि - (हँसकर) - तुम इस समय तो कहते हो, परन्तु बाद में फिर नहीं कहोगे । संशय भी ईश्वर प्राप्ति के मार्ग की एक अवस्था है, इन सब अवस्थाओं को पार कर जाने पर, और भी आगे बढ़ जाने पर ईश्वर मिलते हैं - ऐसा श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं ।
नरेन्द्र - जिस तरह इस पेड़ को देख रहा हूँ, इसी तरह क्या किसी ने ईश्वर को देखा है ?
मणि - हाँ, श्रीरामकृष्ण ने देखा है ।
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नरेन्द्र - वह मन की भूल हो सकती है ।
मणि - जो जिस अवस्था में जैसा दर्शन करता है, उस अवस्था के लिए वही सत्य होता है । जब स्वप्न देख रहे हो कि तुम किसी के बगीचे में गये हुए हो, तब वह बगीचा तुम्हारे लिए सत्य हैं, परंतु तुम्हारी उस अवस्था के बदलने पर - अर्थात् जाग्रत अवस्था में – तुम्हें वह बात भ्रम मालूम होगी । जिस अवस्था में ईश्वर के दर्शन होते हैं, उस अवस्था के होने पर ईश्वर सत्य ही मालूम होगें ।
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नरेन्द्र - मैं सत्य चाहता हूँ । उस दिन श्रीरामकृष्णदेव के साथ ही मैंने घोर तर्क किया ।
मणि - (सहास्य) - क्या हुआ था ?
नरेन्द्र - उन्होंने मुझसे कहा था, 'मुझे कोई कोई ईश्वर कहते हैं ।' मैंने कहा, ‘दूसरे चाहे लाख कहें, परंतु जब तक मुझे वह बात सच नहीं जँचेगी, तब तक मैं कदापि न कहूँगा ।’
"उन्होंने कहा, 'अधिक तर लोग जो कुछ कहेंगे, वही तो सत्य है - वही तो धर्म है !’
“मैंने कहा, 'मैं स्वयं जब तक अच्छी तरह समझ न लूँगा, तब तक मैं दूसरों की बातें नहीं मान सकता ।'”
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मणि - (सहास्य) - तुम्हारा भाव कोपरनिकस, बर्कले आदि की तरह का है । संसार के आदमी कहते हैं, 'सूर्य ही चलता है', पर कोपरनिकस ने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया । संसार के आदमी कहते हैं, 'बाह्य संसार है,’ पर बर्कले ने यह बात नहीं मानी । इसलिए लीविस कहते हैं, 'क्यों, बर्कले क्या एक दार्शनिक कोपरनिकस नहीं था ?
नरेन्द्र - एक History of Philosophy (दर्शन का इतिहास) आप दे सकेंगे ?
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मणि - क्या लीविस का लिखा हुआ ?
नरेन्द्र - नहीं उहबरवेग का, - मैं जर्मन लेखक की पुस्तक पढूँगा ।
मणि - तुम कहते तो हो कि सामने के पेड़ की तरह क्या किसी ने ईश्वर को देखा है, परन्तु ईश्वर अगर आदमी बनकर तुम्हारे सामने आयें और कहें कि मैं ईश्वर हूँ, तो क्या तुम विश्वास करोगे ? तुम लेजरस की कहानी जानते हो न ? जब लेजरस ने परलोक में एब्राहम से जाकर कहा कि अपने आत्मीयों और मित्रों से कह आऊँ कि परलोक वास्तव में है, तब एब्राहम ने कहा, 'तुम्हारे जाकर कहने से वे लोग क्या विश्वास करेंगे ? वे कहेंगे, यह एक झूठा यहाँ आकर बेसिर-पैर की उड़ा रहा है ।'
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"श्रीरामकृष्ण ने कहा है, उन्हें विचार करके कोई जान नहीं सकता । विश्वास से ही सब कुछ होता है - ज्ञान और विज्ञान, दर्शन और आलाप, सब कुछ ।"
भवनाथ ने विवाह किया है । उन्हें अब भोजन-वस्त्र की चिन्ता हो रही है । वे मास्टर के पास आकर कहते हैं, 'विद्यासागर का नया स्कूल खुलनेवाला है, मुझे भी तो भोजन-वस्त्र का प्रबन्ध करना है । अगर स्कूल का कोई काम कर लूँ तो क्या बुरा है ?’
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दिन के तीन-चार बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण लेटे हुए हैं । रामलाल पैर दबा रहे हैं, कमरे में सींती के गोपाल और मणि भी हैं । रामलाल दक्षिणेश्वर से आज श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आये हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण मणि से खिड़कियाँ बन्द कर देने और पैरों पर हाथ फेरने के लिए कह रहे हैं ।
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श्रीयुत पूर्ण को किराये की गाड़ी करके काशीपुर के बगीचे में ले आने के लिए श्रीरामकृष्ण ने कहा था । वे आकर दर्शन कर गये । गाड़ी का किराया मणि देंगे । श्रीरामकृष्ण गोपाल को इशारा करके पूछ रहे हैं, 'इनके पास से मिला ?’
गोपाल - जी हाँ ।
रात के नौ बजे का समय है । सुरेन्द्र राम आदि कलकत्ता लौट जाने का प्रबन्ध कर रहे हैं ।
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वैशाख की धूप - दिन के समय श्रीरामकृष्ण का कमरा बहुत ही तप जाता है । सुरेन्द्र इसीलिए खस की टट्टियाँ ले आये हैं । इन्हें खिड़कियों में लगा देने से कमरा खूब ठण्डा रहता है ।
सुरेन्द्र - खस की टट्टी अभी तक किसी ने नहीं लगायी, - मालूम होता है कोई ध्यान ही नहीं देता ।
एक भक्त - (सहास्य) - भक्तों को इस समय ब्रह्मज्ञान की अवस्था है । इस समय सब 'सोऽहम्' है - संसार मिथ्या हो रहा है । फिर जब 'तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ' यह भाव आयगा, तब यह सब सेवा होगी ।
(सब हँसते हैं ।)
(क्रमशः)



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