रविवार, 20 अक्तूबर 2024

*हेत हरी गुन रूप करे हैं*

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*दादू साचा साहिब सेविये, साची सेवा होइ ।*
*साचा दर्शन पाइये, साचा सेवक सोइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*शंकर कैत१ चढाय जती इन,*
*भूप चढात गिरे सु मरे हैं ।*
*पाय पस्यो नृप होत खुशी मन,*
*जोउ कहे धर्म सोउ धरे हैं ॥*
*भक्ति सथापि रु ज्ञान प्रकाशत,*
*दे निरवेद हि भाव भरे हैं ।*
*रीति भली करि साध लही उर,*
*हेत हरी गुन रूप करे हैं ॥४२१॥*
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शंकराचार्य तो जान गये थे कि यह इनकी माया ही है । अतः उस नौका पर राजा को चढ़ने से रोकने हेतु शंकराचार्य ने कहा१- "पहले इन सब जतियों को चढ़ाओ ।" तब राजा ने कहा- "हाँ आगे आप सब चढ़िये ।" जतियों ने विचार किया यदि अब इस नौका पर हम नहीं चढ़ते हैं तो भी राजा हम सबको मार डालेगा ।
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इससे वे सब जती राजा के भय से उस नौका पर चढ़ गये । वह जल और नौका तो मायामय थे ही । शंकराचार्य की योग शक्ति से माया नष्ट होते ही वे सब आकाश से पृथ्वी पर पड़ कर मर गये । फिर न नाव रही न जल ही । यह सब कौतुक देख कर, राजा अपने मन में अति प्रसन्न होकर शंकराचार्य के चरणों में पड़ गया और शंकराचार्यजी ने जिस सनातन धर्म को धारण करने के लिये कहा वही सनातन धर्म धारण कर लिया ।
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इस प्रकार शंकराचार्यजी ने भगवद्भक्ति की स्थापना कर के ब्रह्मज्ञान का प्रचार किया । वैराग्य का उपदेश देकर जिज्ञासुओं के हृदय में ब्रह्म भाव भरा । आपकी साधनापद्धति अति उत्तम थी, उसको साध कर सबने हृदय में परम शांति प्राप्त की है । हरि के रूप और गुणों में सब प्रेम करने लगे, नास्तिक भावना का अंत हो गया ॥
(क्रमशः)

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