रविवार, 20 अक्तूबर 2024

*४४. रस कौ अंग ३७/४०*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ३७/४०*
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रांम कहै तहां रांमजी, अविगत अलख बिदेह ।
कहि जगजीवन आंन रस, रम मंहिं रोगी देह ॥३७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहाँ राम स्मरण है वहां ही वे ज्ञान से परे अमूर्त रुप राम हैं । अन्य विलासों में यह देह दुखी ही होती है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, दधि गुण जांवन४ छाछि५ ।
दूध सुद्ध हरिजन पिवैं, रांम सुरति तन आछि६ ॥३८॥
{४. जांवन=जामन(दही जमाने के लिये कोई खट्टी चीज)}
(५. छाछि=मट्ठा) {६. आछि=अच्छा(शुद्ध, निर्मल)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि दही जमण या छाछ का गुण लेकर बनता है किंतु संतजन तो शुद्ध दुग्धपान ही करते हैं उनका ध्यान राम में लगकर ही अच्छा रहता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, जे अक्सर मंहि जीव ।
भजि भगवंत भाव सौं, प्रांण सनेही पीव ॥३९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जो जीव पृथ्वी पर वे भावपूर्वक स्मरण करते हैं वे प्रभु के प्रिय है प्रभु उन्हें प्रिय हैं ।
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रांम नांम रस रेलि७ हरि, हरिजन के घटि होइ ।
कहि जगजीवन अन्यत्र, प्रव्रिति का गुन दोइ ॥४०॥
(७. रस रेलि=रस की अधिकता से)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम नाम की अधिकता प्रभु के प्रियजन में ही अधिक होती है । शेष तो प्रवृति व निवृत्ति दो ही गुण हैं ।
(क्रमशः)

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